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६०२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३.
अजितकुमारका राज्यारोहण ___ एक दिन अपने छोटे भाई सहित, संसारसे विरक्त वने हुए जितशत्रु राजा, अठारह पूर्व लाख की आयुको पहुँचे हुए अपने पुत्रोंसे कहने लगे, "हे पुत्रो ! अपने सभी पूर्वज कई बरसों तक विधिसहित पृथ्वीकी रक्षा करके, पृथ्वी अपने पुत्रोंको सौंपते थे और मोक्षके साधनरूप व्रतको ग्रहण करते थे। कारण
"तदेव हि निजं कार्य, परकार्यमतः परं ।"
[बही-मुक्तिका साधनहीं-अपना कार्य है, इससे दूसरा जो कार्य है वह पराया है। इसलिए हे कुमारो! अब हम व्रत ग्रहण करेंगे। यही हमारे कार्यका हेतु है (यानी हमारे जीवनका उद्देश्य है) और यही अपने वंशका क्रम है । हमारीही तरह तुम दोनों इस राज्यमें राजा और युवराज बनो और हमें दीक्षा लेने की आज्ञा दो (७
अजितनाथने कहा, "हे तात ! यह आपके लिए योग्य है। भोगकर्मरूप विन्न न हो तो मेरे लिए भी यह ग्रहण करने योग्य है। विवेकी पुरुप व्रत ग्रहण करने में जब किसी के लिए भी विघ्नकतो नहीं होते तत्र समयके अनुसार सब काम करनेवाले
आप, पूज्य पिताके लिए तो मैं विघ्नकर्ता होही कैसे सकता हूँ? जो पुत्र भक्तिके वश होकर भी, अपने पिताके लिए, चौथापुरुपार्थ यानी-मोक्ष साधन करनेमें, विघ्नकर्ता होता है वह पुत्र, पुत्रके बहाने शत्रु उत्पन्न हुआ है या समझना चाहिए। तो भी मैं इतनी प्रार्थना करता हूँ कि मेरे छोटे पिता (काका ) राज्य. गहीपर बैठें। कारण,-आपके चे विनयी छोटे भाई हमसे