________________
७१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४.
वल्लभ नगर गए। वहाँ चक्रीने सहस्रनयनको उसके पिताके राज्यपर बिठाकर, विद्याधरोंका अधिपति बनाया।
(३३१-३३४) फिर इंद्रके समान पराक्रमी सगर चक्री, स्त्रीरत्नको लेकर अयोध्या अपनी छावनी में आया। वहाँ उसने विनीता नगरीके उद्देश्यसे अष्टमतप किया और विधिके अनुसार, पौषधशालामें जाकर, पौपधनत ग्रहण किया। अष्टमतपके अंतमें उसने पौषध. शालासे निकलकर अपने परिवारके साथ पारणा किया। उसके बाद उसने वासकसज्जा' नायिकाके जैसी अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। वहाँ स्थान स्थानपर तोरण बंधे हुए थे, उनसे वह भ्रकुटीवाली स्त्रीसी मालूम होती थी; दुकानोंकी शोभाके लिए वधी हुई और पवनसे उड़ती हुई पताकाओंसे वह मानो नाचनेके लिए हाथ ऊँचे कर रही हो ऐसी जान पड़ती थी। धूपदानियोंसे धुआँ निकल निकलकर उसकी पंक्तियाँ वन रही थीं, उनसे ऐसा मालूम होता था, मानो उसने अपने शरीरपर पत्रवल्लियाँ बनाई हो; हरेक मंडपपर रत्नोंकी पात्रिकाएँ सनाई हुई थीं, उनसे मानो वह नेत्रका विस्तारवाली हो ऐसी मालूम होती थी; विचित्र प्रकारकी कीगई मंच-रचनाओंसे मानो वहाँ बहुत अच्छी शय्या विछी हो ऐसी मालूम होती थी, और विमानोंकी घुघरियोंकी आवाजसे मानो मंगलगान करती हो ऐसी जान पड़ती थी। क्रमसे नगरमें चलते हुए चक्रवर्ती, इंद्र जैसे.अपने विमानमें आता है वैसे, ऊँचे तोरणवाले, उड़ती हुई पताकाओं
१-जब पतिके आनेका समय होता है तब.अंगारादिकसे तैयार होकर, उसकी राह देखनेवाली स्त्री।२-कटोरियाँ ।