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श्री अजितनाथ-चरित्र
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वर्तीकी पट्टरानी और स्त्रीरत्म होगी । रथनुपुरके राजा पूर्णमेघने उसके साथ व्याह करनेकी इच्छा कई बार प्रकट की; मगर उसके पिताने पूर्णमेघकी बात नहीं मानी। तब जबर्दस्ती लड़कीको ले जाने की इच्छासे पूर्णमेघ, गर्जना करता हश्रा, युद्ध करने के लिए आया । दीर्घभुजावाले पूर्णमेघने बहुत समय तक युद्ध 'करके अंतमें सुलोचनको कभी न टूटनेवाली निद्रामें सुला दिया। तब सहस्रनयन धनकी तरह अपनी बहनको लेकर यहाँ चला
आया। वह अब सपरिवार यहीं रहता है। हे महात्मन ! सरोवरमें क्रीड़ा करती हुई उस सुकेशाने आज तुमको देखा है
और जबसे तुमको देखा है तभीसे कामदेवने उसे वेदनामय विकारकी सजा दी है। गरमीसे पीड़ित हो ऐसे, उसके सारे शरीरमें पसीना आता है; डरी हो ऐसे उसका शरीर काँपता है, रोगिणी हों ऐसे उसके शरीरका रंग बदल गया है, शोकमें डूबी हो ऐसे उसकी आँखोंसे आँसू गिर रहे हैं और मानो योगिनी हो ऐसे वह किसी ध्यानमें लीन रहती है। हे जगतत्राता ! तुम्हारे दर्शनसे क्षणभरहीमें उसकी अवस्था विचित्र प्रकारकी हो गई है। इसलिए वह मरण-शरण ले इसके पहलेही आप आकर उसकी रक्षा करें।" (३१६-३३०)
इस तरह अंतःपुराध्यक्षा स्त्री कह रही थी, उसी समय सहस्रनयन भी आकाशमार्गसे वहाँ पाया और उसने चक्रीको नमस्कार किया।वह सगर चक्रीको आदर सहित अपने निवासस्थान पर ले गया और वहाँ स्त्रीरत्न अपनी बहिन सुदेशनाका दान करके उसने चक्रीको संतुष्ट किया । फिर सहस्रनयन और चक्री विमानपर सवार होकर वैतादय पर्वतपर स्थित गगन