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— चौथा भव-धनसेठ
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श्राकर्षित कर इसी तरह दुर्गतिमें डालते हैं, जिस तरह अंधा साथ आनेवाले सभी आदमियोंको अपने साथ कूएमें डालता है। जैसे सुख-दुख स्वसंवेदन (निज अनुभव) से ही मालूम होते हैं, वैसेही श्रात्मा भी स्वसंवेदनसे ही जानने योग्य है। स्वसंवेदनमें कोई बाधा नहीं आती, इसलिए आत्माका निषेध कोई नहीं कर सकता है। में सुखी हूँ। मैं दुखी हूँ। ऐसी अबाधित प्रतीति आत्माके सिवा और किसीको कभी भी नहीं हो सकती है। इस तरहके ज्ञानसे अपने शरीरमें श्रात्माकी सिद्धि होती है तो अनुमानसे दुसरेके शरीरमें भी आत्मा होनेकी सिद्धि होती है। जो प्राणी मरता है वही पुन: पैदा होता है, इससे निःसंशय मालूम होता है कि, चेतनका परलोक भी है। जैसे चेतन वचपनसे जवान होता है और जवानसे बूढ़ा होता है वैसे ही, वह एक जन्मसे दूसरे जन्ममें भी जाता है। पूर्वभवकी अनुवृत्ति ( याद ) के सिवा तुरतका जन्मा हुआ चालक सिखाए वगैरही माताका स्तनपान कैसे करने लगता है ? इस जगतमें कारणके समानही कार्य दिखाई देते हैं, तब अचेतन भूतोंसे (पृथ्वी, अप, तेज, और वायु से ) चेतन कैसे उत्पन्न हो सकता है ? हे संभिन्नमति ! बताओ कि चेतन प्रत्येक भूतसे उत्पन्न होता है या सबके संयोगसे ? यदि यह माने कि प्रत्येक भूतसे चेतन उत्पन्न होता है तो उतनेही चेतन होने चाहिए जितने भूत है; और यदि यह माने कि सब भूतोंके संयोगसे चेतन उत्पन्न होता है, तो भिन्न स्वभाववाले भूतोंसे एक स्वभाववाला चेतन कैसे उत्पन्न हो सकता है ? ये सब बातें विचार करने योग्य हैं। पृथ्वी रूप, रस, गंध और