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.श्री अजितनाथ-चरित्र
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इस समय तो यह वचन प्रमाणके. विना भी स्वीकार करना पड़ता है। शायद पर्वत उड़ें, आकाशमें फूल उगें, आग ठंडी हो, वध्याके पुत्र जन्मे, गधेके सींग उग आवें, पत्थर पानीपर तैरने लगे और नारकीको वेदना न हो; मगर इसकी वाणी कदापि सच नहीं हो सकती।" (२८१-२६८) .. अपनी राजसभाके ज्योतिपियोंकी बातें सुनकर योग्यअयोग्यका ज्ञान रखनेवाले राजाने कौतुक सहित नए ज्योतिपी. की तरफ देखा। वह ज्योतिषी उपहासपूर्ण वाणीमें, मानो प्रवचनने प्रेरणा की हो ऐसे, गर्वसहित बोला, हे राजा ! आपकी सभाके मंत्री क्या मस्खरे हैं ? या वसंतऋतुमें विनोद करानेवाले हैं ? या ग्रामपंडित है ? हे प्रभो! आपकी सभामें यदि ऐसे सभासद होंगे तो चतुराई निराश्रित होकर नष्ट हो जाएगी। अहो ! श्राप विश्वमें चतुर है; आपका इन मुग्ध-मूर्ख लोगोंके साथ बातचीत करना इसी तरह अशोभनीय है जिस तरह सियारके साथ केसरीसिंहका बातचीत करना । यदि ये लोग
आपके कुलक्रमागत नौकर हों तो इन अल्पबुद्धि लोगोंका, त्रियोंकी तरह पोपण होना चाहिए; ये लोग आपकी सभामें बैठने योग्य इसी तरह नहीं है जिस तरह स्वर्ण और माणिक्य. से बनाए गए मुकुट में कांचके टुकड़े विठाने योग्य नहीं होते। ये लोग शाखोंके रहस्यको जरासा भी नहीं समझते; ये तोतेकी तरह मात्र पाठ पढ़कर अभिमानी हुए हैं। मिथ्या गाल फुलानेवाले और गधेकी पूंछ पकड़कर रखनेवाले लोगोंकी यह वाणी है मगर जो रहस्य-अर्थको जानते हैं वे तो सोच-विचार कर ही बोलते हैं। शायद सार्थवाहका पुतला ऊँटपर विठानेसे देशांतरों