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. पाँचवाँ भव-धनसेठ
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दुर्दीतने कहा, "यह सुमेरु पर्वत है और यह पुंडरीकिणी नगरी है।"
पंडिताने पूछा, "मुनिका नाम क्या है ?" - वह बोला, "मैं मुनिका नाम भूल गया हूँ।"
उसने फिर पूछा, "मंत्रियोंसे घिरे हुए इस राजाका नाम क्या है और यह तपस्विनी कौन है ?"
उसने कहा, "मैं उनके नाम नहीं जानता।" (६५८-६६२)
इससे पंडिताने समझ लिया कि यह आदमी मायावी है। उसने हँसते हुए कहा, "हे वत्स ! तेरे कथनानुसार यह तेरे पूर्वजन्मका हाल है। तू ललितांगदेवका जीव है और तेरी पत्नी स्वयंप्रभा अभी कर्मदोपसे पंगु होकर नंदीग्राममें जन्मी है। उसको जातिस्मरण (पूर्वभवका ) ज्ञान हुआ इसलिए इस पटमें उसने अपने पूर्वजन्मका चरित्र चित्रित किया। मैं जब धातकीखंडमें गई थी तब उसने मुझे दिया था। मुझे उस पंगुपर दया आई इसलिए मैंने तुमे ढूंढ़ निकाला। अब तू मेरे साथ चल । मैं तुझे धातकीखंडमें उसके पास पहुँचा हूँ। हे पुत्र ! वह गरीव विचारी तेरे वियोगसे दुःखग जीवन वितारही है। इसलिए तू वहाँ जाकर अपने पूर्वजन्मको प्राणवल्लभा को आश्वासन दे ।" (६६३-६६७ )
यह कहकर पंडिता चुप हो रही, इसलिए उसके समान उम्रयाले मित्रांन विलिनी के बरंगे कहा, "हे मित्र ! तुमको बीरत्नकी प्रानि हुई है। इसलिए मालग होना है कि तुम्हारे पुगका उपय हुआ। सलिप तुग जाकर उन पगु सीमे मिलो सीर या उसका पालन-पोषमा करो।"