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भरत- बाहुबलीका वृत्तांत
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उस समय चक्री विश्वार करने लगा, "जैसे अंधा जुधारी हरेक तरहके जुए में हार जाता है उसी तरह मैं बाहुबली से हरेक युद्धमें हार गया हूँ, इससे गाय जैसे घास-दाना खाती है और उससे होनेवाला दूध गाय दुहनेवाले के उपयोग में आता है उसी तरह मेरे जीते हुए भरतक्षेत्रका उपभोग क्या यह बाहुबली करेगा ? एक म्यानमें दो तलवारोंकी तरह इस भरत क्षेत्र में एकही समयमें दो चक्रवर्ती किसीने न कभी देखे हैं और न सुनेही हैं । गधे सींगकी तरह, देवताओंसे इंद्रा और राजाओंसे चक्रवर्तीका जीता जाना पहले कभी नहीं सुना गया। तब बाहुबली के द्वारा पराजित मैं क्या चक्रवर्ती नहीं बनूँगा ? और मेरे द्वारा न जीता गया और दुनियासे भी न जीता जा सके ऐसा बाहुबली चक्रवर्ती बनेगा ?' (७०२ - ७०६ )
चक्रवर्ती इस तरह सोच रहा था तत्र चिंतामणिरत्नके समान यक्ष राजाओंोंने चक्र लाकर उके हाथमें दिया । उससे भरतको विश्वास हुआ कि मैं चक्रवर्तीड़ी हूँ और वह, चवंडर जैसे आकाशमें धूलको घुमाता है इस तरह, चक्रको आकाशमें घुमाने लगा । ज्वालाओं के जालसे विकराल बना हुआ चक्र ऐसा जान पड़ा मानों वह अकालमें कालाग्नि हो; मानों वह दूसरा वडवानल हो; मानो वह अकस्मात पैदा हुआ वज्ञाग्नि हो; मानों वह ऊँचा विजलीका पुंज हो; मानो वह गिरता हुआ सूरजका यित्र हो; मानों वह विजलीका गोला हो। चक्रवर्तीने प्रहार करनेके लिए घुमाए हुए चक्रको देखकर मनस्त्री बाहुबली अपने मनमें सोचने लगे, "अपनेको पिताका ऋपभस्वामीकापुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है ! और उसके क्षात्र