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४२४] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्रः पर्ष १. सर्ग ५.
शामाको धारण करना था। प्रलयकाल के समुद्रके श्रावतम फिरते हुए मत्स्यायनारी विप्राकी नरह, फिरते हुए उस देशको देव, देखनवाल लोगोंकी आँखाम भी भ्रम हो जाता था। उस समय सेनाके सभी लोग और देवता शंका करने लगे कि अगर बाहुबलीकं हाथसे गिरकर दंढ उड़ेगा तो वह सूरजको काँसके बरतनकी नरह तोड़ देगा; चंद्रमंडलको भरंट पत्नीक अंडेकी तरह चूगा कर दंगा, तारोको आंवलोंक फलोंकी तरह गिरा देगा; वैमानिक देवताओंके विमानोंको पक्षियोंक घोसलोंकी तरह छिन्न कर देगा, पर्वतीक शिवराको वल्मीक (दीगोंके रहनकी जगह) की तरह भंग कर देगा, बड़े बड़े पडाको छोटी कुंजीकी बानकी नगह मल देगा, और पृथ्वीको ऋची मिट्टीक गोलेकी तरह चूर्ण कर दंगा। इस तरह शंका नजरोस देखे गए उस दंडको बाहुवलीन चक्रीक सरपर मारा। उस दंडके श्राघातसे चक्री, धनकं श्राघातसे टुके हुग कीलकी नरह, पृथ्वी में गलेतक घुस गया और उसके साथ उसके सैनिक भी, दुखी होकर जमीनपर गिर गएः मानां वे ग्रह याचना कर रहे थे कि, हमारे स्वामीको दिया हुआ विवर (बिल) हमें भी दो। गहुकं द्वारा प्रसित मूर्यक्री तरह जब चक्री भूमिमें घूम गया तब आसमानमें देवताओंका और अमीनपर मनुध्यांका कोलाहल नुनाई दिया। जिसकी माँग्ने मुंद गई और मुंह श्याम हो गया है ऐसा भरतपति माना ललित हुश्रा हो इस तरह थोड़ी देर जमीनमें स्थिर रहा, श्रीर फिर, तत्कालही वह, इस तरह जमीनमंसे बाहर निकला
में रान के अंत में सूरज वैदीप्यमान और तीव्र होकर बाहर निकलता है। ( ६६१-५०१)