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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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जीव उत्कृष्टोंमें भी उत्कृष्ट हैं । मेरी आपसे एकही प्रार्थना है कि, गाँव गाँव और नगर नगर विहार करते हुए भी आप मेरे हृदय (सिंहासन) का कभी त्याग न करें।" ( १४१-१४८)
इस तरह स्वर्गपति इंद्र प्रभुकी स्तुति कर, पंचांगसे भूमिस्पर्शके साथ प्रभुको प्रणाम कर पूर्व और उत्तर दिशाके मध्यमें बैठा । प्रभु अष्टापद पर्वतपर पधारे हैं, यह समाचार शैलरक्षक पुरुपोंने तत्कालही जाकर चक्रीको सुनाया; कारण वे लोग इसी कामके लिए वहाँ रखे गए थे। दाता चक्रीने भगवानके आनेकी. वधाई देनेवाले पुरुपोंको, साढ़े बारह कोटिका सोना दिया। ऐसे प्रसंगोंमें जो कुछ दिया जाता है वह कमही है। फिर महाराज सिंहासनसे उठे और उन्होंने सात-आठ कदम अष्टापदकी दिशाकी तरफ चलकर प्रभुके उद्देशसे प्रणाम किया। उसके बाद वे पुन: जाकर अपने सिंहासनपर बैठे। उन्होंने, प्रभुको वंदना करने जानेके लिए, अपने सैनिकोंको बुलाया । भरतकी आज्ञासे चारों तरफके राजा श्राकर, इस तरह अयोध्यामें जमा हुए जिस तरह समुद्रके किनारे तरंगें आती हैं। उच्च स्वरसे हाथी गर्जने और घोड़े हिनहिनाने लगे; ऐसा मालूम होता था कि वे अपने सवारोंसे जल्दी चलनेको कह रहे हैं। पुलकित अंगवाले रथी और पैदल लोग बड़े आनंदसे तत्कालही चलने लगे। कारण, भगवानके पास जाने में राजाकी आज्ञा उनके लिए सोने. में सुगंधके समान हो पड़ी थी। जैसे बाढ़का पानी बड़ी नदीमें भी नहीं समाता है ऐसेही, अयोध्या और अष्टापदके वीचमें वह सेना समाती न थी। आकाशमें, सफेद छत्र और मयूर छत्रके
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