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५३४ ] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १.
वह स्वीकार करता था। मानो चित्रोंमें चित्रित होऐसे आनंदित
और निश्चल नेत्रोंसे नगरकं नर-नारी दूरहीसे अष्टपूर्व (पहले कभी न देखा हो ऐसे) की नरह उसे देख रहे थे। मानो मंत्रबलसे आकर्षित हुए हों, या जादूसे हुए हों ऐसे, लोग उसके पीछे पीछे चल रहे थे। इस तरह पुण्यके वामरूप वह राजा जब अरिंदम आचार्य चरणोंस पवित्र बने हुए, उद्यानके समीप पाया तब, वह शिविकासे नीचे उतरा और तपस्वियोंके मनकी नरट्ट उद्यान में घुसा। उस राजाने, भुजाओंसे पृथ्वीके भारकी तरह समी आभूषणोंको शरीरसे उतार दिया । कामदेव. के शासनकी नरह, उसने मस्तकपर चिरकालसे धारण की हुई माला निकाल दी। फिर उसने प्राचार्यकी वाई तरफ रह, चैत्यचंदन कर प्राचार्य दिपहुए रजाहरणादिमुनिचिहाँकोत्वीकार किया । "मैं सभी सावध रोगांका प्रत्याख्यान करता है। यों कहकर उसने पंचमुष्टिसे केशलोच किया। वह बड़े मनवाला राजा सत्काल ग्रहण किए हुए व्रतलिंगसे ऐसा शोमने लगा मानो वह बचपनहींसे व्रतधारी हो। पश्चात उसने गुनको तीन प्रद. क्षिणा देकर वंदना की और गुमने धर्मदेशना देना प्रारंभ किया,-(२२५-२५४)
"इस अपार संसार में, समुद्र के अंदर दक्षिणावर्त शंखको तरह, मनुष्यजन्म ऋठिनतासे मिलता है। यदि मनुष्यजन्म मिल जाता है तो बोधिधीज (सन्यक्त्व) मिलना बहुत कठिन है। यदि वह मिल जाए तो भी महावत (चारित्र) का योग तो पुण्ययोगसेही प्राप्त होता है। जहाँ तक वर्षाऋतुके मेघ नहीं . १-मैं उन सी कामोको छोड्ढा हु जिनसे हिंसा होती है।