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७६२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
है ? हे प्रभो! आपका शम अद्भुत है, आपका रूप अद्भुत है
और सब प्राणियोंपरकी श्रापकी दया भी अद्भुत है। ऐसे सथ प्रकार की अद्भुतताके. भंडार आपको हम नमस्कार करते हैं।"
(६२३.६३०) इस तरह जगन्नाथकी स्तुति कर, योग्य स्थानपर बैठ, सगरने अमृतके प्रवाहसी धर्मदेशना सुनी। देशनाके अंतमें सगर राजा बार बार प्रभुको नमस्कार कर, हाथ जोड़, गद्गद स्वरमें बोला; "हे तीर्थेश, यद्यपि आपके लिए न कोई अपना है और न कोई पराया है; तथापि अज्ञानवश मैं आपको अपने भाईकी तरह पहचानता हूँ। हे नाथ ! जब आप दुस्तर संसारसागरसे सारे जगतको तारते हैं तो उसमें मुम इवते हुए की उपेक्षा आप क्यों करते हैं ? हे जगत्पति ! अनेक.क्लेशोंसे भरें हुए. इस संसाररूपी खडेमें गिरनेसे आप मुझे बचाइए ! बयाइए.! प्रसन्न होकर मुझे दीक्षा दीजिए। हे स्वामी! मैने संसारके सुखोंमें पड़कर, मूर्ख और अविवेकी वालककी तरह अपना । जीवन निष्फल खोया है।" इस तरह कद, हाथ जोड़कर खड़े। हुए सगर राजाको भगवानने दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दी।
. (६३१-६३७) . . तब भगीरथने उठ, नमस्कार कर, प्रार्थनाएँ पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षके समान भगवानसे इस तरह प्रार्थना की, "हे पूज्य पाद ! श्राप मेरे पितामहको दीक्षा देंगे,मगर जबतक में निष्क्रमणोत्सव-न करूँ तब तक प्रतीक्षा कीजिए। यद्यपि मुमुक्षुओंको उत्सवादिकी कोई आवश्यकता नहीं है तथापि मेरे भाग्रहको
"-मनोनिग्रह, निर्विकारी भाव ।
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