________________
श्री अजितनाथ-चरित्र
[७६१
आनंद हुआ। महलमें होते हुए भी उसने उठकर प्रभुको नमस्कार किया और सामनेही हों इस तरह शक्रस्तवसे प्रभुकी स्तुति की। स्वामीके आनेके समाचार सुनानेवाले उद्यानपालोंको चक्रीने साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ इनाममें दी। फिर भगीरथ व सामंतोंसे परिवारित सगर बड़े ठाठके साथ समवसरणके समीप गया। वहाँ समवसरणमें उत्तर द्वारके मार्गसे प्रवेशकर वह मानने लगा मानो उसकी आत्माने सिद्धक्षेत्र में प्रवेश किया है। पश्चात चक्री धर्मचक्री तीर्थंकरकी प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर इस तरह स्तुति करने लगा। (६१६-६२२) . . . "मेरे प्रसादसे आपका प्रसाद या आपके प्रसादसे मेरा इन अन्योन्याश्रयोंकाभेद कीजिए और मुझपर प्रसन्न होइए। हे स्वामी ! आपकी रूपलक्ष्मीको देखने में सहस्राक्ष इंद्र असमर्थ है और आपके गुणों का वर्णन करनेमें सहस्रजिह्वा शेष लाचार है। हे नाथ ! आप अनुत्तर विमानके देवोंके संशयोंको भी मिटाते , हैं, इससे अधिक और कौनसा गुण स्तुत्य हो सकता है ? आपमें
भानंद सुख भोगकी भी शक्ति है और इसके त्यागकी भी शक्ति है। इन परस्पर विरुद्ध वातोंपर अश्रद्धालु लोग कैसे श्रद्धा कर 'सकते हैं ? हे नाथ ! आप सब प्राणियोंके साथ उपेक्षाभाव रखते हैं और साथही सबके कल्याणकर्ता भी हैं। यह बात सही है; परंतु गलतसी मालूम होती है। हे भगवंत ! आपके समान परस्पर विरोधी यातें किसी दूसरेमें नहीं है। आपमें परम त्यागीपन भी है और परम चक्रवर्तीपन भी है। ये दोनों एक साथ हैं। जिनके कल्याण-पों में नारकी जीव भी सुख पाते हैं उनके पवित्र चरित्रका वर्णन करनेकी शक्ति किसमें