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७० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
बालक होते हुए भी बल और बुद्धिसे स्थविर पुरुषोंका अग्रणी है, इसलिए अब तू यह न कहकर कि मैं अभी बालक हूँ, हमारे इस राज्यभारको ग्रहण कर जिससे हम भाररहित होकर संसारसागरको तैरनेका प्रयत्न करें ।यह संसार यद्यपि स्वयंभूरमण समुद्रकी तरह दुस्तर है, तो भी मेरे पूर्वज उसको तैरे है, इसीलिए मुझे भी श्रद्धा है। उनके पुत्र भी राज्यभार ग्रहण करते थे। उन्हींका बताया हुआ यह मार्ग है। उसी पर तू भी चल और इस पृथ्वीको धारण कर ।" (६०५-६०६)
भगीरथ पितामहको प्रणाम करके बोला, "हे पिताजी ! यह उचितही है, कि आप संसार सागरसे तारनेवाली दीक्षा लेना चाहते हैं, परंतु मैं भी व्रत ग्रहण करनेको उत्सुक हूँ, इसलिए राज्यदानके प्रसादसे मुझे निराश न कीजिए।" (६१०-६११)
__ तव चक्रवर्तीने कहा, "हे वत्स ! व्रत ग्रहण करना हमारे कुलके योग्य ही है; परंतु उससे भी अधिक योग्य गुरुजनोंकी आज्ञापालनका व्रत है। इसलिए हे महद्वाशय ! समय आनेपर, जब तुम्हारे कवचधारी पुत्र हो तब उसे राज्यभार सौंपकर तुम, भी मेरी तरह व्रत ग्रहण करना।"
यह सुनकर भगीरथ गुरुआज्ञा भंग होनेके डरसे डरा और उस भवभीरुका मन विचलित हो उठा, इससे बहुत देर तक वह चुप रहा। तब सगर चक्रीने भगीरथका परम आनंदके साथ, राज्याभिषेक किया । (६१२-६१५)
उसी समय उद्यानपालकोंने आकर चक्रीको प्रभु अजितनायके उद्यानमें आकर, समोसरनेकी वधाई दी। पौत्रके राज्याभिपेकसे और प्रभुके आगमनसमाचारसे चक्रीको अति अधिक