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श्री अजितनाथ-चरित्र
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...."सर्वत्र कुशलं सताम् ।" - [ सतपुरुषोंका सब जगह कल्याणही होता है।] फिर कालके योगसे मरकर वह कुम्हार विराट देशमें, मानो दूसरा कुवेर भंडारी हो ऐसा वणिक हुआ । गाँवके दूसरे लोग भी मर कर विराट देशमें साधारण मनुष्य हुए। कारण, एकसे काम करनेवालोंको एकसा स्थानही मिलता है । कुम्हारका जीव मरकर फिरसे उसी देशका राजा हुआ। वहाँसे भी मरकर वह परम ऋद्धिवाला देवता हुआ । वहाँसे आकर तुम भगीरथ हुए हो और वे ग्रामवासी भ्रमण करते करते तुम्हारे पिताजन्हुकुमार वगैरा हुए। उन्होंने केवल मनहीसे संघको हानि पहुँचाई थी इसलिए वे सभी एकसाथ जलकर राख हो गए। इसमें ज्वलनप्रभ नागराज तो निमित्तमात्रही है। हे महाशय ! तुमने उस समय गाँवको बुरा काम करनेसे रोकनेका शुभकर्म किया था इसलिए, तुम गाँव जला था उस समय भी नहीं जले और इस समय भी नहीं जले" (५८३-६०१) • इस तरह केवलज्ञानीसे पूर्वभव सुनकर विवेकका सागर भगीरथ संसारसे अतिशय उदासीन हुआ, मगर उस समय उसने यह सोचकर दीक्षा नहीं ली कि यदि मैं दीक्षा लूँगा तो फोड़े पर फोड़ेकी तरह मेरे पितामहको दुःखपर दुःख होगा। वह केवलीकी चरण-चंदना कर, रथपर सवार हो, वापस अयोध्या पाया । (६०२-६०४)
आज्ञानुसार काम करके आए हुए और प्रणाम करते हुए पौत्रका सगर राजाने वार वार मस्तक सूंघा, हाथ उसकी पीठ पर रक्खा और स्नेहपूर्ण गौरवके साथ कहा, "हे वत्स ! तू