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३१६] निपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.
पचेकी तरह जमीनपर गिर गए, कईयोंके छत्र, यशकी तरह भूमिसात हो गए. कइयोंके घोड़े मंत्रसे स्थिर किए हुए सपांकी तरह स्थिर हो रहे, और कइयोंके रथ इस तरह टूट गए मानोंचे मिट्टीके बने हुए थे। कई अपरिचितोंकी तरह इधर उधर भाग गए। वे अपने आदमियोंके अनिकी राह भी न देख सके। सभी ग्लेच्छ अपने प्राण लेकर दशों दिशाओं में भाग गए। पानीकी बाढ़से जैसे वृक्ष बिचकर बह जाते हैं ऐसही सुपेणरूपी जलकी वादसे म्लेच्छ, बहकर चले गए। फिर वे कौओंकी तरह एक जगह जम. हो, थोड़ी देर सोच-विचार कर, आतुर बालक जैसे माताके पास जाते हैं ऐसेही महानदी पिधुके पास आए, और मृत्यु-स्नान करतंको तैयार हुए हों ऐसे, बलुके समूह के बिस्तर पिछाकर उनपर बैठे। वहाँ उन्होंने नग्न ऊँचे मुँह कर मेघमुख वगैरा नागकुमार जातिके अपने कुलदेवताका मनमें ध्यान कर अट्ठम तप किया। अट्टम तप श्रतमें मानों चक्रीके चक्रसे डर लगा हो ऐसे नागकुमार देवताओंके आसन कापे। अवधिज्ञानसे मच्छ लोग को दुबी देख, पिता संतान के दुःखसे दुखी होता है ऐसे दुखी हो वे उनकेसामने आकर प्रकट हुए और आकाशमें रहकर उनसे उन्होंने पूछा, "तुममनचीती किस बातकी सफलता चाहते हो ?' (४०२-४१३) ।
- आकाशमं स्थित उन मेघमुम्ब नागकुमारोंको देव, मानों बहुत प्यासे हाँ ऐसे, उन्होंने हाथ जोड़, मस्तकपर रख कहा"हमारे देशपर आन तक किसीने हमला नहीं किया था, अत्र कोई पाया है, आप ऐसा कीजिए कि जिससे वह यहाँसे बला ताए । (४१४-११५)