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प्रथम भव-धनसेठ . : .
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चले। इसलिए साथमें आए हुए लोग भूखसे घबराकर मैले कपड़ीवाले तापसोंकी तरह, कंद-मूलादि भक्षण करने के लिए इधर-उधर घूमने लगे । (१०२-१०४) .. एक दिन शामके वक्त सेठके मित्र मणिभद्रने साथके लोगोंकी दुःखकथा सेठको सुनाई। उसे सुनकर सार्थके लोगोंके दुःखोंकी चिंतामें वह इस तरह निश्चल होकर बैठ रहा जिस तरह हवा नहीं चलती है तब समुद्र निश्चल हो जाता है।
(१०५-१०६) इस तरह चिंतामें पड़े हुए सेठको क्षणमात्रमें नींद आ गई। कारण"अतिदुःखातिसौख्ये हि तस्याः प्रथमकारणम् ।" [बहुत दुःख और बहुत सुख निद्राका पहला कारण है।]
(१०७) रातकी अन्तिम पहरमें शुभ आशय रखने वाला अश्वशाला (घुड़साल) का एक चौकीदार कहने लगा
"हमारे स्वामीका यंश चारों दिशाओं में फैला हुआ है। अभी बड़ाही बुरा समय आया है तो भी वे अपने आश्रित लोगोंका अच्छी तरह पालन-पोषण कर रहे हैं।” (१०८-१०६) . सेठने यह बात सुनी। वह सोचने लगा, किसीने मुझे उपालभ दिया है। मेरे साथमें कौन दुःखी है ? अरे हाँ ! मेरे साथ धर्मघोप प्राचार्य श्राए हुए हैं। वे अपने लिए नहीं बनाया और नहीं बनवाया हुआ प्रासुक(अचित)भिक्षान्न खाकर ही पेट भरते हैं । वे कंद, मूल और फलादि पदार्थोंको तो कभी छूते तक नहीं हैं। इस समय दुःखी सार्थमें उनकी क्या दशा हुई होगी?