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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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जटाधारी तापसोंकी उत्पत्ति ... भूख प्याससे घबराए हुए और तत्त्वज्ञानसे रहित वे तपस्वी राजा अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करने लगे, "ये स्वामी किंपाक ( जहरी कोचले ) के फलकी तरह मीठे फलभी नहीं खाते, खारे पानीकी तरह स्वादिष्ट मीठा जल भी नहीं पीते,शरीरकी तरफसे लापरवाह होनेसे स्नान और विलेपन भी नहीं करते और वस्त्रालंकारों और फूलोंको भार समझकर ग्रहण नहीं करते। ये तो हवाके द्वारा उड़ाई हुई धूलको पर्वतकी तरह धारण कर लेसे हैं। ललाटको. तपानेवाला ताप सदा सरपर सहन करते हैं। कभी सोते नहीं है तो भी नहीं थकते; श्रेष्ठ हाथीकी तरह गरमीसरदीकी इन्हें कुछ परवाह नहीं है । ये भूखको नहीं गिनते, प्यासको नहीं.पहचानते और वैर लेनेकी इच्छा रखनेवाले क्षत्रीकी तरह रातको नींद भी नहीं लेते। हम इनके अनुचर बने हैं; मगर मानों हम अपराधी हो इस तरह, हमें एक निगाहसे देखकर भी प्रसम नहीं करते; फिर बातचीतकी तो बात ही क्या है ? ये प्रभु पुत्र-कलत्र (वाल पच्चे)आदिके त्यागी है तो भी हम नहीं समझते कि वे अपने मनमें क्या सोचा करते हैं ?"
(१०३-११०) इस तरह विचारकर वे सब तपस्वी अपने समूहके नेता और स्वामीके पास सेवककी तरह रहनेवाले, फच्छ और महा. फच्छके पास गए व कहने लगे,"काही भूग्यको जीतनेवाले प्रभु ! और कहाँ अन्नके फीडे हम ! फहो प्यासको जीतनेवाले प्रभु ! और फहां जलके मेंढक दम ! फहौ शीतसे न घयरानेयाले प्रनु ! और कहाँ बदरफी तरह सरदीसे कोपनेवाले इम! कहो निद्रादीन