________________
२२४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
प्रभु ! और कहाँ अजगरसे निद्रालु हम ! कहाँ हमेशा जमीनपर नहीं बैठे रहनेवाले प्रभु ! और कहाँ आसन लगाकर बैठे रहनेवाले पंगुसे हम ! संमुद्र लाँघनेको उड़नेवाले गरुड पक्षीका जैसे कौवे अनुसरण करते हैं वैसेही स्वामीके धारण किए हुए व्रतका हमने अनुसरण किया है । (मगर उनका अनुगमन हमारे लिए कठिन हो गया है। ) तब अपनी आजीविकाके लिए क्या हमें अपने राज्य वापस लेने चाहिए ? मगर उन्हें तो भरतने अपनेअधिकारमें कर लिया है, तब हमें क्या करना चाहिए? क्याहमें : अपने जीवननिर्वाह के लिए भरतका आसरा लेना चाहिए । मगर स्वामीको छोड़कर जानेमें उसीका भय हमें अधिक है । हे. आर्य ! आप सदा प्रभुके पास रहनेवाले और उनके विचारोंको अच्छी तरह जाननेवाले हैं, इसलिए हम दिग्मूढ बने हुए साधुओंको क्या करना चाहिए ? सो बताइए।" (१११-११८)
उन कच्छ और महाकच्छ मुनियोंने जवाब दिया, "यदि स्वयंभूरमण समुद्रका पार पाया जासके तो प्रभुके भावोंकोभी जाना जासके। (स्वयंभूरमण समुद्रका जैसे कोई पार, नहीं पा सकता, वैसेही प्रभुके विचारोंका पता भी किसीको नहीं लग सकता।) पहले हम प्रभुकी आज्ञाके अनुसार चलते थे। परंतु अभी तो प्रभुने मौन धारण कर रखा है, इसलिए जैसे उनके मनकी बात आप लोग नहीं जानते, वैसेही हम भी कुछ नहीं जानते । हम सबकी दशा एकसीही है। इसलिए आप कहिए वैसाही हम भी करें।" (११६-१२१) .. . फिर वे सब विचार करके गंगा नदीके पासके वनमें गए. और वहाँ उन्होंने इच्छानुसार कंद-मूल-फलादि का आहार,