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___yko ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग२.
कल्याण-कल्पनाके समान बड़ा कोलाहल होने लगा, किसी जगह चारणोंकी सुंदर द्विपथक असीसें सुनाई देने लगीं; किसी जगह चेटक (सेवक) हर्पके साथ ऊँचे स्वर में बोलने लगे और किसी जगह याचकोंको बुलानेसे उग्र बने हुए छड़ीदारोंका कोलाहल होने लगा। इस तरह. वर्षाऋतुके मेघोंसे भरे हुए आकाशमें होती हुई गर्जनाकी तरह, राजगृहके आँगनमें तरह तरहके शन्द फैलने लगे। (५२६-५४२)
नगरजन कहीं कुंकुमादिका लेप करने लगे, कहीं रेशमी यस्न पहनने लगे, कहीं दिव्य मालाओंके श्राभूपणोंसे अलंकृत होने लगे, कहीं कपूर डाले हुए पानोंसे प्रसन्न होने लगे; कहीं घरोंके आँगनोंमें. वम छिड़कने लगे, कहीं नीलकमलके समान मोतियोंसे स्वस्तिक बनाने लगे, कहीं नए केलोंके स्तंभोंसे वंदनवार बनाने लगे और कहीं बंदनवारोंके दोनों तरफ सोनेके कुंभ रख रहे थे। उसी समय, मानो साचात ऋतुकी लक्ष्मी हों ऐसी, फूलोंसे गूंथी हुई वेणियोंवाली, पुष्पमालाओंसे मस्तकको लपेटनेवाली और गलोंमें लटकती हुई मालाओंवाली, नगरकी गंधर्वसुंदरियाँ देवांगनाओंकी तरह ताल-स्वर के साथ गायन गाने लगी। रत्नोंके कानोंके गहनों,भुनबंधों, निष्कों,' कंकणों,और नूपुरोंसेवे रत्न-पर्वतकी देवियोंके समान शोभती थीं और दोनों तरफ लटकते और हिलते हुए उत्तरीय वनोंके पल्लासे और श्रेणीबद्ध परिकर से वे मानो कल्पवृक्षकी लताएँ हों ऐसी मालूमहोती थीं। उस समय नगरकी कुलवानबियाँ भी, पवित्र देवा सहित पूर्ण पात्रोंको हाथमें लेकर वहाँ श्राने लगी।
१-निष्क गलेमें पहननेका श्राभूषण । २-समूहसे । ३-दूव ।