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. .. . . सागरचंद्रका वृत्तांत .
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दूसरे विमानकी दीवारोंमें पड़ता था; इससे ऐसा मालूम होता था कि विमान विमानोंसे सगर्भ (गर्भ धारण किया हो वैसे) हुए हैं । (३८०-३६०)
. दिशाओंके मुखमें प्रतिध्वनिरूप वनाहुआ, वंदीजनों(चारणों) की जयध्वनिसे दुंदुभि ( नगारों) के शब्दोंसे और गंधवों तथा नाटकके वाजोंकी आवाजोंसे, मानों आकाशको फाड़ता हुआ बढ़ रहा हो इस तरह, वह विमान इंद्रकी इच्छासे सौधर्म देवलोकके वीचमें होकर चला । सौधर्म-देवलोकके उत्तरमें होकर जरा टेढ़ा उतरता हुआ वह विमान, लाख योजनके विस्तारवाला होनेसे, जंबूद्वीपके ढक्कनसा मालूम होता था। उस . समय रस्ते चलते हुए देव आपसमें एक दूसरेसे कहने लगे
"हे हाथीके सवार ! दूर जाओ, तुम्हारे हाथीको मेरा शेर वरदाश्त नहीं करेगा।" -'"हे घोड़ेके सवार ! तुम जरा अलग रहो, मेरा ऊँट गुस्से हुआ है । वह तुम्हारे घोड़ेको सहन नहीं करेगा।""हे मृगवाहन ! (हिरणकी सवारीवाले) तुम पास न आना, अन्यथा मेरा हाथी तुम्हारे मृगको हानि पहुँचाएगा।" "हे सर्पके वाहनवाले ! यहाँसे दूर चले जाओ, वरना मेरा वाहन गरुड़ तुम्हारे सर्पको हानि पहुँचाएगा।" - "हे भाई ! बीचमें आकर तुम मेरे विमानकी गतिको क्यों रोकते हो ? मेरे विमानसे अपना विमान क्यों टकराते हो ?" -"अजी साहब ! मैं पीछे रह गया हूँ और इंद्र बड़ी शीघ्रतासे चले जा रहे हैं, इसलिए अगर कहीं विमान टकरागया हो तो गुस्सा न करो। कारण,- : . .
....."संमईः खलु पर्वणि ।"