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१५.] त्रिषष्टि शलाका पुरप-चरित्र: पर्व १. सर्ग२.
[इच्छाके अनुसार रूप धारण करलेना देवताओं के लिए स्वाभाविक है। ] (३५३-३७६)
फिर इंद्र दिशा-लक्ष्मीक समान श्राट पट्टरानियों सहित गंधवों और नाय (नाटक) के सैन्यों ( मैनिकों) के कौतुक देखता हुआ, सिंहासनको प्रदक्षिणा देकर पूर्व दिशाके जीनोंके मार्गसे, अपने मनके जैसे ऊँचे सिंहासनपर चढ़ा। माणिक्यकी मीना-दीवारों में उसका प्रतिबिंब पड़नसे वह मानों हजारों शरीरवाला हो, ऐसा मालूम होना था । सीधमंद्र पूर्वाभिमुख होकर (पूर्वकी तरफ मुँह करके ) अपने ग्रासनपर बैठा । फिर मानों इंद्र के दूसरे रूपही हो वैसे उसके सामानिक देव उच्चर तरफ जीनेस चढ़कर अपने अपने आसनोंपर बैठे। इससे दूसरे देवता मी दक्षिण तरफ जीनपर चढ़कर अपने पास पर बैठे कारण स्वामीके पास आसनांका उलंघन नहीं होता । सिंहासनपर बैठेहुए शचिपनि (इंद्र) के श्रागे दर्पण वगैरा अष्ट मांगलिक
और मस्तक पर चाँदके जैसा उचल छत्र शोभा देन लगे। दोनों तरफ दो चंबर इस तरह डुलने लगे मानों में चलते हुए दो ईस हो। निरणोंसे-(बहत हुए स्रोतास) से पर्वत शोभता है वैसेही पताकाओं में मुशोभित हजार. योजन ऊँचा एक इंद्रध्वज विमानक आग पर रहा था। उस समय करोड़ों सामानिक यादि देवताबास घिराहुया इंद्र इस तरह सुशोभित होरहा था जैसे नदियों के प्रवाह घिरा हया लागर शोमता है । दूसरे विमानोंसे घिरा हुआ वह विमान, इस तरह शोभता था जैसे, दूसर चैत्यास विरा हुश्रा मूल चत्य शोमता है । विमानकी मुंदर, माणिक्यमय दीवारांक श्रदर एक विमानका प्रतिबिंब