________________
४६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६.
कलिंदपर्वत प्लावित (भीगा हुआ) रहता है वैसेही कपूर,अगर और कस्तुरीसे बनाए गए घपके धुंएसे वह सदा व्याप्त ( भरा) रहता था। अगली दोनों तरफ और पीछे सुंदर चैत्यवृक्ष तथा माणिक्यकी पीठिकाएँ रची हुई थीं; उनसे वह आभूषणोंकी तरह सुशोभित होता था। और अष्टापद पर्वतके शिखरपर, मानो मस्तकके मुकुटका माणिक्यभूषण हो तथा नंदीश्वरादि चैत्योंकी मानो स्पद्धा करता हो ऐसा वह पवित्र जान पड़ता था।
(६०८-६२६) उस चैत्यमें भरत राजाने अपने निन्यावे भाइयोंकी दिव्य रत्नमय प्रतिमाएँ भी बैंठाई और प्रभुकी सेवा करती हुई एक अपनी प्रतिमा भी वहाँ स्थापित की। यह भीभक्तिम अतृप्तिकाएक चिह्न है। चैत्यके बाहर भगवानका एक स्तूप (चरणपादुकाका छोटासा मंदिर) बनवाया। उसके पासही अपने निन्यानवे भाइयोंके स्तूप भी बनवाए। वहाँ आने जानेवाले पुरुप उनकी आसातना न करें यह सोचकर लोहेके यंत्रमय आरक्षक (चौकीदार) पुरुप वहाँ खड़े किए। उन लोहेके यंत्रमय पुरुपोंके कारण वह स्थान मृत्युलोकसे बाहर हो ऐसे मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया। फिर चक्रवर्तीने डरत्नसे उस पर्वतके दंदाने-दाँत बना दिए, इसलिए वह पर्वत सीधा और ऊँचा खंभेसा हो गया; और लोगोंके चढ़ने जैसा न रहा। फिर चक्रवर्तीने उस पर्वतके चारों तरफ मेखलाके समान और मनुष्य जिनको न लाँघ सके ऐसे, एक एक योजनके अंतरसे आठ सोपान जीने) बनाए । तभीसे उस पर्वतका नाम अष्टापद प्रसिद्ध हुआ। अन्य लोग उसे हराद्रि (महादेवका पर्वत), कैलाश और स्फटिकाद्रिके नामसे भी जानने लगे। (३३०-६३७)