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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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घोड़ों, मनुष्यों, किन्नरों, पक्षियों, बालकों, रुरुमृगों (काले हिरनों ), अष्टापदों, चमरीमृगों (सुरा गायों), हाथियों, वनलताओं और कमलों के चित्रोंसे, विचित्र और अद्भुत रचनावाला, वह चैत्य घने वृक्षोंवाले उद्यानके समान शोभता था । उसके आस पास रत्नोंके खंभे थे । मानो आकाशगंगाकी तरंगें हों ऐसी पताकाओं से वह चैत्य मनोहर लगता था । ऊँचे सोने के ध्वजदंडों से वह उन्नत मालूम होता था । निरंतर प्रसरती (हवा में उड़ती ) पताकाओं की घुघरियोंकी आवाज विद्याधरोंकी कटि-मेखलाओं (कंदोरों) की ध्वनिका अनुसरण करती थीं। उसके ऊपर विशाल कांतिवाले, पद्मराग मणिके डोसे वह चैत्य . माणिक्य जड़ी हुई मुद्रिकावाला हो ऐसा शोभता था । किसी जगह वह पल्लवित हो, किसी जगह वह बखतरवाला हो और - किसी जगह वह रोमांचित हो और कहीं किरणोंसे लिप्त हो ऐसा मालूम होता था । गोरुचंदन के रसमय तिलकों से वह चिह्निन किया गया था। उसकी चुनाईका हरेक जोड़ ऐसा मिला हुआ था कि वह चैत्य एकही पत्थरका बना हुआासा मालूम होता था । उस चैत्यके नितंबभागपर विचित्र हाव-भाव से मनोहर दिखाई देती माणिक्यकी पुतलियाँ रखी थीं, उनसे वह अप्सराओं से अधिष्ठित मेरुपर्वतके जैसा शोभता था । उसके द्वारके दोनों तरफ चंदनरस से पुते हुए दो कुंभ रखे थे; उनसे वह द्वारपर खिले हुए दो श्वेतकमलोंसे अंकित हो ऐसा मालूम होता था । धूपित करके तिरली बाँधी हुई, लटकती मालाओं से वह रमणीक (सुंदर) जान पड़ता था । पाँच रंगों के फूलोंसे उसके तलभागपर, सुंदर प्रकर ( गुलदस्ते ) बने हुए थे । यमुना नदीसे जैसे