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३६६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १, सर्ग ५.
पर लेप किया, लक्ष्मीके घरके समान खिले हुए कमलोंसे उसने पूजामें नेत्रम्तमनकी औषधिरूप श्राँगी रची; धुम्रवल्लीसे, मानों कस्तूरीकी पत्रावली चित्रित करते ही ऐसे, प्रतिमाके सामने उसने धूप किया, मानों सभी कर्मरूपी समिधाका, बड़ा अग्निकुंड हो ऐसे जलते हुए दीपकांकी भारती उठाकर प्रभुकी भारती की और हाथ जोड़, नमस्कार कर, अंजलि सरपर रख इस तरह स्तुति की,- (३८६-३६६) . ___"हे जगन्नाथ ! मैं अज्ञान हूँ तो भी मैं अपनेको युक्त (योग्य) मानकर श्रापकी स्तुति करता हूँ। कारण,"लल्ला अपि हि बालानां युक्ता एव गिरो गुरौ ।"
[चालकोंकी नहीं समझमें आनेवाली वाणी भी गुरुजनोंफे सामने योग्यही होती है । हे देव ! जैसे सिद्धरसके छूनेसे लोहा सोना हो जाता है. ऐसेही श्रापका आश्रय लेनेवाला प्राणी भारी कमांगाला होनेपर भी सिद्ध हो जाता है। हे स्वामी ! वे प्राणीही धन्य है और अपने मन, वचन और कायका फल पाते है जो आपका ध्यान करते हैं, श्रापकी स्तुति करते है और श्रापकी पूजा करते हैं। हे प्रभो! पृथ्वीमें विहार करते समय अमीनपर पड़ी हुई श्रापकी चरणरज पुरुपोंके पापरूपी वृक्षाको उखाड़नेमें हाथीक समान पाचरण करती है। हे नाथ ! स्वाभाविक मोहसे जन्मांध बनेहए सांसारिक प्राणियोंको विवेकरूपी दृष्टि देने में एक प्रापही समर्थ है। जैसे मनके लिए मेरु
पर्वत दूर नहीं है, वैसही आपके चरणकमलों में, भौरेकी तरह, _ . रहनेवाले लोगोंके लिए मोक्ष दूर नहीं है । हे देव ! जैसे मेघके
तलसे जामुन पृक्षके फल गिर जाते हैं, ऐसेही, आपकी देशना.