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५५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग २. वैयार किया हो ऐसी अमूल्य रत्नोंस बनी हुई कटिमेखलाण उन्दोंन पहनी थीं; उनके शरीरकी किरगाांक द्वारा जीवं गए सभी ज्योतिष्क देवोंकी किरणे मानों उनके चरणकमलोंमें श्राकर पड़ी ही ऐसे रत्नोंके नूपुसि व शोमती थीं। उनमसे किन्हीके शरीरकी कांनि प्रियंगु (काली कंगनी) के समान श्याम थी, कई बालसूर्यके समान अपनी कांति फैलानी थीं, कई चाँदनीके समान अपनी क्रांनिसे अपनी आत्माको स्नान कराती थी, कई अपनी कांनिसे दिशाओंको कनकसूत्र देती थीं और कई मानो वयमगिकी पुतलियाँ ही गमी कांतिमान मालूम होनी थीं।
गोलाकार स्तनास मानो वे चकचकी लोड़ी सहित नदियाँ हो, लीलायुक्त गतिसे मानो , राजहंसिनियाँ हो, कोमल हाथोंस मानों में पत्नीसहित लताएँ हो, मुंदर, आँखोंसे मानो वे विक्रमित पन्नवाली पद्मिनियाँ हो. नंदरता परस सानो वे जलमहिन वापिकाएं, हो और लावण्यस मानो व कामदेवकी अधिदेवता देव) हां, एसी शोमती थीं। इस तरहका रुप धारण करनेवाली उन यापन दिशाकमारियान, अपन यासनको कॉपने देख, अवविज्ञान तुरत मालम किया कि विनयादेवीकी कोबसे तीर्थकरका पवित्र जन्म हया है। उन्होंने लाना कि, इस जंयुट्टीप दक्षिगा भरताडके मध्य भागमें विनीता नगरीके अंदर, इत्या अलका राजा है। उसका नाम जितशत्रु है। उसकी धमपत्नीका नाम विजयादेवी है। उन्हींकी कोखसे, इस अवसर्पिणी में तीन बानको धारण करनेवान श्रीमान दूसरे तीर्थकर भगवान पैदा हुए हैं। यह जान ग्रामनसे उठ, हर्ष