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२३४] त्रियष्टि शलाका घुरप-परिश्रः पर्व १. सग इ.
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के लाल कटकपर. (यानी जंबूद्वीप भूमिसमूहपर स्थित पर्वतके शिवरपर.) क्रांताओं सहिन क्रीडा करते थे; कई बार वे मुमेन पर्वतपरके नंदनादिक वनों में पवनकी तरह इच्छापूर्वक श्रानंदसहित विहार करते थे कई बार यह समझाकर कि श्रावककी संपत्तिका यही फल है, नंदीश्वरादि तीर्थापर, शाश्वत प्रतिमा. ओंकी पूजा करने के लिए जाने थे; कई बार वे विदेहादि क्षेत्रों में श्री अरिहन समवसरणाम जाकर प्रमुकी वाणी रूपी अमृतका पान करन थ; और कई बार त्र, हरिण से कान ॐत्र करके गायन मुनता है, बस चारण मुनिबाँसे धर्मशाना सुननें ये । सम्यक्त्र (समकिन) और अलीग मंडारको धारण करनेवाले
विद्याधरोग विरहग तीन पुरुषायाँको-धर्म,अर्थ और कामको हानि न पहुँचें इस तरह राज्य करत थे। (२२५-२३३)
आहार दान ऋच्छ और महाकच्छ-नो गना नपस्त्री हुप मांगा नदीके दृद्धिगा किनारे, मृगकी तरह बनचर होकर. फिरत ये और बल्लन (छान) बन्न पहने हुए चलने-फिरत वृद्धति समान मालूम होने थे। व गृहस्थियों पर श्राहारको वमन किए हुए अमके समान सममकर कमी ग्रहण नहीं करते थे। चतुर्थ (एक उपबाय) और छह (दो उपवास) वगैरा तय करनसे उनके शरीर का लोहू और मांस मुम्बनसे, उनका सूखा हुआ शरीर पड़ी इह वाकनीकी उपमाको धारणा करता था । पारण दिन भी व अपनथाप वृज सिंहए पन्नों और फलोंका अाहार करतं थे, और मनमें भगवानका ध्यान करने हम वहीं रहते थे। .. .
(२३४-३७)