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१२० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २.
अपने दुःखका भाग देकर दुःखका भार कम करो।"(52-८५)
अशोकदत्तने कहा, "हे मित्र ! तुम मेरे प्राणों के समान हो तुमसे जब दूसरी भी कोई बात छिपाकर नहीं रखी जा सकती तब यह तो छिपाईही कैसे जा सकती है ? तुम जानते हो कि दुनिया औरतें, अमावसकी रातें जैसे अर्धकार पैदा करती हैं वैसे ही, अनर्थ पैदा करती हैं।" (८६-८७)
सागरचंद्रने पूछा, "परंतु माई ! इस समय तुम नागिनके समान किसी स्त्रीके संकटमें पड़े हो "(८८) ___ अशोकदत्त, बनावटी शरमका दिखावा करके,बोला,"प्रियदर्शना बहुत दिनोंसे मुझे अनुचित बात कहा करती थी, मगर मने यह सोचकर, अवज्ञाके साथ उसकी उपेक्षा की कि वह श्रापही ललित होकर चुप हो रहेगी; मगर उसने तो असतीके लायक बातें कहना बंद नहीं किया। कहा है,
"......अहो स्त्रीणामसद्ग्रहाः।" [अहो ! स्त्रियोंका अनुचित प्राग्रह कितना होता है ? हे बंधु ! आज मैं तुमसे मिलनेके लिए तुम्हारे घर गया था। तब छलको जाननेवाली उस स्त्रीने राक्षसीकी तरह मुझे रोका । मगर हाथी जैसे बंधनसे छूटता है वैसेही मैं बहुन कोशिशके बाद इसके बंधनसे छूटा और जल्दी जल्दी वहींसे चला धारहा हूँ। मैंने रस्तमं सोचा,"मेरी जिंदगी तक यह औरत मुमको नहीं छोड़ेगी इसलिए मुझे यात्मवात करलेना चाहिए मगर मरना भी तो ठीक नहीं है। कारण, यह स्त्री मेरे लिए इसी तरह कहेगी या इसके विपरीत पुछ कहेगी ? इसलिए मैं खुदही अपने मित्रको सारी वातें बता , जिससे वह स्त्रीपर विश्वास करके अपना नाश न