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१८०त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ३.
और यथायोग्य अर्थ बतानेवाले अहंत परमेश्वर देव हैं। उन देवकाही ध्यान करना, उन्हींकी उपासना करना, उन्हीं की शरण. में जाना और यदि ज्ञान हो तो उन्हीं के शासनका प्रतिपादन करना चाहिए। जो देव स्त्री, शस्त्र और अक्षसूत्रादि रागादि शेषोंके चिंहोंसे अंकित है और जो कृपा या दंड देने में तत्पर हैं वे देव कमी मुक्ति देने में समर्थ नहीं हो सकते । नाटक, अट्टहास
और संगीत वगैरा उपाधियोंसे जो त्रिसन्धुलर बने हुए हैं वे देवता शरणमें आए हुए प्राणियोंको मोक्षम कैसे लेजा सकते है ?" (८८-८५)
महावतोंको धारण करनेवाले, धैर्यधारी भिक्षा मात्रहीसे जीवननिर्वाह करनेवाले और सदा सामायिकमें रहनेवाले जो धर्मोपदेशक होते हैं वे गुरु कहलाते हैं। सभी चीजें चाहनेवाने, समी तरहका मोलन करनेवाले,परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी
और मिथ्या उपदेश देनेवाने गुरू नहीं हो सकते । जो गुरु खुद ही परिग्रह और प्रारंभमें मग्न रहते हैं, वे दूसरोंको कैसे तार सकते हैं ? जो खुद दरिद्री होता है, वह दूसरोंको कैसे धनवान बना सकता है ? (२६-३८)
"दुर्गतिमें पढ़ते हुए प्राणियोंको जो धारण करता है उसे धर्म कहते है । सयज्ञका बताया हुआ संयम वगैरा दस प्रकार. का धर्म मुक्तिका कारण होता है। जो वचन अपौरुषेय है वह असंभव है, इसलिए वह प्रमाण मान्य नहीं होता; कारण,प्रमाणता तो प्राप्त पुरुपके आधीन होती है। मियादृष्टि मनु
१-प्रतिकूल भाव 12-चंबन्न। ३-सममामि। ४-al पुरपका काया नहीं है।५-सच्चे देय।।