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....... श्री अजितनाथ-चरित्र
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खिंचकर, कबूतरकी तरह वापस आया। उसने आकर पूछा, "हे प्रिये ! कमलिनी जैसे हिमको नहीं सह सकती। वैसेही तूने- जो पहले थोडासा वियोग भी नहीं सह सकती थी मेरे दीर्घकालके वियोगको कैसे सहन किया ?" (८८१-८८२) ,
सुलक्षणाने जवाब दिया, "हे जीवितेश्वर ! मरुस्थल में जैसे हंसी, थोड़े पानी में जैसे मछली, राहुके मुँहमें जैसे चंद्रलेखा
और दावानलमें जैसे हरिणी महा संकटमें फंस जाती है वैसेही तुम्हारे वियोगसे मैं भी मौतके दरवाजे तक पहुंच चुकी थी; उसी समय अंधकारमें दीपकके समान, समुद्रमें जहाजके समान, मरुस्थलमें वपोके समान और अंधेपनमें नजरके समान, दयाके भंडारके समान एक 'विपुल' नामकी साध्वी यहाँ आई। उनके दर्शनसे तुम्हारे विरहसे आया हुआ मेरा सारा दुःख जाता रहा और मुझे मनुष्य जन्मके फलस्वरूप सम्यक्त्व प्राप्त हुआ।" (८८३-८८७)
शुद्धभटने पूछा, “हे भट्टिनी ! तुम मनुष्य जन्मका फल सम्यक्त्व कहती हो, वह क्या चीज है ?"
वह बोली, "हे आर्यपुत्र । वह अपने प्रिय मनुष्यको कहने लायक है, और आप मुझे प्राणोंसे भी प्रिय हैं इसलिए कहती हूँ। सुनिए
"देवमें देवपनकी बुद्धि, गुरुमें गुरुपनकी बुद्धि और शुद्ध धर्ममें धर्मबुद्धि रखना सम्यक्त्व कहलाता है। अदेवमें देवबुद्धि, अगुरुमें गुरुबुद्धि और अधर्ममें धर्मबुद्धि रखना लिपर्यास 'भाव होनेसे मिथ्यात्व कहलाता है।
सर्वज्ञ, रागादिक दोषोंको जीतनेवाले, तीन लोक-पूजित