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________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [६८१ · · व्योंके माने हुए और हिंसादि दोपोंसे कलुषित बने हुए नाम.मात्रके धर्मको यदि धर्मकी तरह जाना-माना जाए तो वह संसारमें परिभ्रमण करनेका. कारण होता है। यदि रागी देव, . देव माना जाए,अब्रह्मचारी गुरु माना जाए और दयाहीन धर्म,धर्म माना.जाए तो खेदके साथ यह कहना पड़ेगा कि जगतका नाश हो गया है ( यानी जगतके प्राणी दुर्गतिमें जाएँगे।) सम्यक्त्व शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता, इन पाँच बातोंसे अच्छी तरह पहचाना जाता है। स्थिरता, प्रभावना, भक्ति, जिनशासनमें कुशलता और तीर्थसेवा, ये पाँच बातें सम्यक्त्वकी भूषण कहलाती हैं। शंका, आकांक्षा, विचि. कित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और उनका परिचय, ये पाँच बातें सम्यक्त्वको दूषित करती हैं।" (VEE-६०५) ये बातें सुनकर ब्राह्मणने कहा, "हे खी, तू भाग्यवती है। कारण, तूने निधानकी तरह सम्यक्त्व प्राप्त किया है। इस तरह कहते-सोचते शुद्धभट भी तत्कालही सम्यक्त्व पाया। "धर्मे धर्मोपदेष्टारः साक्षिमा शुमात्मनाम् ।" . [शुभआत्माओंके लिए धर्मप्राप्रिमें धर्मोपदेशक साक्षीमात्र होते हैं। सम्यक्त्वके उपदेशसे वे दोनों श्रावक हुए। "स्वर्णास्थाता सिद्धरसात् सीसकापुणी अपि।" सिद्धरससे शीशा और लोहा दोनों स्वर्ण होते हैं। उस __: समय उस अग्रहारमें साधुओंका संसर्ग नहीं होता था इसलिए लोग श्रावकधर्मका त्याग करके मिथ्यादृष्टि हो गए थे; इमलिए .. लोग उन दोनोंकी यह कहकर निंदा करने लगे कि ये दोनों . . .. . . . . . .
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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