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2] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग १.
होते हुए भी यदि अब भी मैं व्रत ग्रहण का तो उचितही होगा। कारण-दीक्षा, दीपककी तरह ग्रहण करने मात्रहीसे अज्ञानके अंधकारको दूर करती है। इसलिए मैं यहाँसे नगरमें जाकर पुत्रको राज्य दूंगा और हंस जैसे हंसगतिका आश्रय लेता है वैसेही मैं भी पिताकी गतिका अनुसरण करुंगा।" (७५०-७१०)
फिर एक मनकी तरह व्रत ग्रहण करनेमें भी वाद करने वाली श्रीमतीके साथ वह अपने लोहार्गलनगरमें आया। वहाँ रायके लोमसे उसके पुत्रने घन देकर मंत्रियोंको फोड़ लिया था।
"धने:.....कि नामे जलेरिख ।" [जलकी तरह (धनसे ) कौन अमेद्य है ? अर्थात जैसे जल समीको फोड़ देता है इसी तरह वनसे भी प्राय: आदमियोंको अप्रामाणिक बनाया जा सकता है] (७११-७१२)
श्रीमती और वनजंघ यह विचार करते हुए सो गए कि सवेरे उठकर पुत्रको राज्यगद्दी देना है और हमें ऋन ग्रहण करना है-दीक्षा लेना है। उस समय मुखसे सोते हुए राज्यदंपतिको मारडालनेके लिए राजपुत्रने विषधूप किया। कहा है"कस्तं निषेद्भुमीशः स्याद्गुहादग्निमित्रोत्थितम् ।"
[घरमें उठी हुई (लगी हुई) आगकी तरह उसको (राजाले पुत्रको) रोकनमें कौन समर्थ हो सकता है ? ] प्राणोंको पकड़कर.टींचनवाले अंजुट (चीमट) की तरह वियआपका श्रृयों राजाराणीकी नाकम त्रुसा और उनके प्राणपन्वेत. रह गये। (७१३-१५)