________________
४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.
की तरह सदा उसी मार्गपर चलते हैं जिसपर उनके मंत्री उन्हें चलाते हैं। शायद स्वामीके व्यसनोंसे अपना जीवन निर्वाह करनेवाले लोग निन्दा करेंगे, तो भी हमको उचित सलाह देनी ही होगी । कारण
........."नोप्यते यवा मृगभयेन किम् ।" [क्या मृगोंके डरसे (खेतमें ) नाज नहीं बोया जाता ?)
(२८४-२६३) बुद्धिमानोंमें अग्रणी स्वयंबुद्ध मंत्रीने इस तरह विचारकरहाथ जोड़, राजा महावलसे कहा, "महाराज, यह संसार समुद्रके समान हैं। जैसे नदियोंके जलसे समुद्र तृप्त नहीं होता, समुद्रके जलसे बडवानल तृप्त नहीं होता, जंतुआंसे चमराज तृप्त नहीं होता और लकड़ीसे आग ता नहीं होती वैसेही इस दुनियामें यह आत्मा विषयसुखसे कभी तृप्त नहीं होती। नदी किनारकी छाया, दुर्जन मनुष्य, विप, विषय और सपादि जहरीप्राणी इनका अधिक सेवन-परिचय सदा दुखदेनेवाला ही होता है । सेवनके समय कामभोग सुखदायी मालूम होते हैं, मगर परिणाममें विरस लगते हैं। जिस तरह खुजानेसे पाम (खुजली ) बढ़ती है इसी तरह कामका सेवन भी असन्तोपको बढ़ाता है । कामदेव नरकका दूत है, व्यसनोंका सागर है, विपत्तिरूपी लताका अंकुर है और पापरूपी वृक्षको फैलानेवाला है। कामदेवके मदसे मतवाले बने हुए पुरुप सदाचाररूपी मागसे भ्रष्ट होकर भव-संसाररूपी खईमें पड़ते हैं। चूहा जब घरमें घुसता है तो अनेक स्थानोंपर बिल बनाता है (और कपड़े लत्ते वगैरा काटता है।) उसी तरह कामदेव जब शरीरमें