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· चौथा भव-धनसेठ - [४३ घुसता है तब वह पुरुषके अर्थ, धर्म और मोक्षको नष्ट करता है। ( २६४-३०१)
__ "स्त्रियाँ जहरीली बेलकी तरह दर्शन, स्पर्श और उपभोगसे अत्यन्त व्यामोह (भ्रम-अज्ञान ) उत्पन्न करती हैं। वे कालरूपी. पारधीके जाल हैं। इसलिए हरिणकी तरह पुरुषोंके लिए अत्यन्त अनर्थ करनेवाली हो जाती हैं। जो मौज-शौकके मित्र हैं, वे केवल खाने, पीने और खीविलासके मित्र हैं। इसलिए वे अपने स्वामीके परलोकके हितकी चिंता कभी नहीं करते। वे स्वार्थीलोग नीच, खुशामदी व लंपट होते हैं, इसलिए अपने स्त्रामीको सदा स्त्रीकथा, गीत, नाच और विनोदकी बातें ही सुना सुनाकर खुश करते हैं। वेरके पेड़के साथ रहनेसे जैसे केलेका पेड़ कभी अच्छा नहीं रहता वैसेही, कुसंगतिसे कुलीन पुरुपोंका कभी उत्थान नहीं होता, इसलिए हे कुलीन स्वामी, प्रसन्न होइए; विचार कीजिए। आप खुद ज्ञानी है इसलिए मोहमें न गिरिए, व्यसनोंकी आसक्ति छोड़िए और धर्म में मन लगाइए। छायाहीन वृक्ष, जलहीन सरोवर, सुगंधहीन फूल, दंतहीन हाथी, लावण्यहीन रूप, मंत्रीहीन राजा, देवमूर्तिहीन चैत्य, चंद्रहीन रात्रि, चरित्रहीन साधु, शस्त्रहीन सेना, और नेत्रहीन चेहरा, जैसे सुशोभित नहीं होते उसी तरह, धर्महीन पुरुष भी कभी सुशोभित नहीं होता। चक्रवर्ती राजा भी अगर अधर्मी होता है तो उसे वहाँ नया भव मिलता है जहाँ खराब अन्न भी राज्यसंपदाके समान समझा जाता है। महा कुलमें उत्पन्न होने पर भी जो प्रात्मा धर्माचरण नहीं करता है वह नए जन्ममें कुत्तेकी तरह दूसरोंका जूठा भोजन खानेवाला होता है। ब्राह्मण भी