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३३६] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४..
इस तरह सजाई हुई नगरी में प्रवेश करनेकी इच्छासे पृथ्वीके इंद्र चक्रवर्ती शुभ मुहूर्तमें मेयके समान गर्जना करनेवाले हाथीपर सवार हुए। जैसे आकाश चंद्रमंडलसे शोभता है वैसेही, कपूरचूर्णक समानसफेद छत्रोंसे वे शोमते थे। दो चामर दुल रहे थे, ऐसा मालूम होता था मानों गंगा और सिंधु भक्तिवश, अपने शरीर छोटे करके चामरोंके बहाने सेवा कर रही है। स्फटिकपर्वतकी शिलाओंका सार लेकर बनाए हुए हों ऐसे उनले, अति बारीक, कोमल और घने बुने हुए बत्रोंसे चे सुशोमित थे। मानों रत्नप्रभा पृथ्वीन, प्रेमसे अपना सार अर्पण किया होऐसे विचित्र रत्नालंकारांसे उनका सारा शरीर अलंकृत हो रहा था फनीपरमणियोंको धारण करनेवाले नागकुमारदेवोंसे घिरे हुए नागराजकी तरह वे माणिक्यमय मुकुटवाले राजाओं से सेवित थे। चारण देवता से इनके गुणगान करते हैं ऐसे, चारण-भाट जय जय शब्द बोलकर सबको आनंदित करतं हुए भरतके अद्भुत गुणोंका कीर्तन करते थे और ऐसा मालूम होता था कि मांगलिक बाजोंकी आवाजकी प्रतिध्वनिके बहाने आकाशभी उनका मंगल गान कर रहा था। तेजमें इंद्रके समान और पराक्रमके भंडार महाराजान रवाना होने के लिए गजेंद्रको आगे बढ़ाया। बहुत दिनोंसे लौट हुए अपने राजाको देखनेके लिए गाँवास और शहरोंसे इतने लोग आए थे मानां वे स्वर्गसे उतर श्राप है या जमीनसे फूट निकले हैं। महाराजकी सारी सेना और देवनको श्राप हुए लोगोंके समूहको निरखकर ऐसा मालूम होता था कि सारा मृत्युलोक एकही जगह जमा हो गया. है । इस समय चारों तरफ नरमुख दिखाई देते थे; एक तिल