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३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र पर्व १ सर्ग १.
ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नत्रयको धारण करने वालोंकी भक्ति करना, उनका काम करना, शुभका विचार और संसारकी निन्दा करना भावना है। (२००) ___यह चार तरहका (दान, शील, नप और भावनारूपी) धर्म अपार फल (मोक्षफल ) पानेका साधन है, इसलिए संसार भ्रमणसे डरे हुए लोगों को सावधान होकर इसकी साधना करनी चाहिए। (२०१)
धर्मापदेश सुनकर घनसेठने कहा, हे स्वामी, यह धर्म मैंने बहुत समयके वाद मुना है, इसलिए अबतक में अपने कमां से ठगा गया हूँ।" फिर सेठ उठा और गुरुके चरणोंमें तथा दूसरे मुनियोंकी बंदना करके अपने प्रात्माको धन्य मानता हुया डेरे पर चला गया। धर्मदेशनाके आनंदमें मग्न सेठने वह रात एक क्षणकी तरह समाप्त की। (२०३-२०४)
वहानब सोके उठा तर, सवरही कोई मंगलपाठक (भाट) शंखके समान ऊँची व गंभीर और मधुर वाणी में कहने लगा, "चनांधकारसे मलिन, पद्मिनी (कमलिनी) की शोभाको चुरानवाली और मनुष्योंके व्यवहारको रोकनवाली रात, बरसातक मौसमी तरह चली गई है। तेजस्वी और प्रचंड किरणोंवाला सूरज उगा है। कामकाज करनेमें सुहृद (मित्र) के समान प्रातःकाल, शरद् ऋतुकं समयकी तरह बढ़ रहा है। इस शरदऋतुम सरोवर और सरिताओंके जल इसी तरह निर्मल हो रहे हैं, जिस तरह तत्ववाघसे बुद्धिमान लोगों मन निर्मल होते हैं । सूर्यक्री किरणों से मुग्ने हुए और कीचरहित मार्ग एसेही सरल हो गए हैं जिस तरह श्राचायक