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३०१ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्य१. सर्ग.
लंगे। उसकें फैलने से जोनक नामके न्लेच्छ लोग, वायुले वृक्षकी नरह, परांगमुन्य होगा (हार गए)। गागड़ी (सपेरा) जैसे सब तरह के सपोंको वश में कर लेता है, वैसेही उसने बताध्यपर्वतके श्रालयाम प्रदेशों में रहनवान्न म्नच्छोंकी सभी जातियोंको जीन लिया । ( २६७-२३)
प्रौढ प्रताप अनिवार्य प्रसास्वान उस सेनापतिने वहाँसे आगे चलकर, मूरज जैसे मार श्राकाशमें फैल जाता है वैसेही, कच्छदंशकी सारी भूमिका पात्रांन कर लिया (बीन लिया)। सिंह जैसे सारं जंगलको दवा देना है, वैसही वह सारे निछुट प्रदेशीको दबाकर कच्छकी समतलमूनिमें स्वस्थ होकर रहा। जैसे पनि पास त्रियाँ आती है बैलही, म्लेच्छदेशों के राजा मत लेकर भक्तिसहित सेनापतिक पास याने लगे। किसीन स्वर्णगिरिक शिवर. जितने रत्नोंक दर दिए, कल्यॉन चलवेफिरत विंध्य पर्वतक बैंस हाथी दिए, कइयॉन सूर्यक घोड़ोंको भी नाँच जानेवाले बाई दिए और कईयान अंजनसे बनाए हुए देवताओंके याक नस रय दिया दुसरी मी नोलो सारभूत पीने थी वे ममी उन्होंने उनको भेट की | कहा है कि"गिरिम्यापि मरित्कृष्टं रत्न रत्नारे ब्रजेन् ।"
पिवंत नहीं हार निका गए रत्न मी रत्नाकर (समुद्र) मेंही जान हैं।] इस तरह में अर्पण कर उन्होंन सेनापतिसे कहा, "श्रान हम आपश्रादापालकहोश्राप नोंकरकी तरह यहाँ रहेगा सेनानीन सबको यथोचित सत्कार देकर, बिदा किया। फिर पाप जैसे पाया था बैनही मुन्नस सिंधुके पार चला गया। कीर्तिरुपी बड़ी (लता) के दोइद, के समान म्लेच्छोंसे