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________________ ___७६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग रखें । हे राजा! जबतक मेरी की हुई प्रतिज्ञा झूठी नहीं होती तयतक में दयापात्र नहीं हूँ। जब मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या होगी, तब श्राप मेरा वध करानेमें समर्थ हैं। और जब मैं वधके योग्य हो जाऊँ तब यदि आप मुझे छोड़ देंगे तो श्राप दयालु कहा लाएँगे। मुझे आपने छोड़ दिया है तो भी मैं यहाँसे नहीं जाऊँगा और कैदीकी तरह ही रहूँगा। अब मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होनेमें थोड़ाही समय है। थोड़ी देरके लिए धीरज रखिए और यहीं बैठे हुए यमराजके अगले सैनिकों के समान उछलते हुए समुद्रकी तरंगों को देम्बिए। आपको सभाके इन व्योतिपियोंको थोड़ी देरके लिए साक्षी बनाइए। कारण, क्षणभरके बाद आप, में और ये कोई नहीं रहेंगे।" यो कद्दकर वह विप्र मौन हुा । क्षणभरके बाद मौतकी गर्जनाके समान कोई अव्यक्त शब्द सुनाई दिया। अचानक हुई उस पीड़ाकारी ध्वनिको सुनकर वनके मृगोंकी तरह सबने अपने कान खड़े किए। उस समय वह ब्राह्मण कुछ सर उठाकर, मुख श्रासनसे उठकर और मुछ ओंठोंको टेढ़ा कर इस तरह कहने लगा, "हे राजा! आकाश और पृथ्वीको भर देनेवाली, सागरकी ध्वनिको सुनिए। यह आपकी विदाईको सूचित करनेवाले मंमा (दुग्गी) की आवाजके समान है । जिसका अंशमात्र जल ग्रहण कर पुष्करावादिमेघ सारी पृथ्वीकोडुबा देते हैं वही समुद्र मर्यादा छोड़कर बेरोक इस पृथ्वीको डुबाता आ रहा है। उसे देखिए। यह समुद्र खडॉको भर रहा है, वृक्षोंको मथ रहा है, स्थलोंको ढक रहा है और पर्वतोंको आच्छादित कर रहा है। अहो ! बह बड़ाही दुर्वार है। जोरकी हवा चल रही हो,तो
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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