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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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बीचमें जैसे कूपक (मस्तूल) होता है ऐसा, समवसरणके बीच में तीन कोस ऊँचा चैत्यवृक्ष बनाया । उस चैत्यवृक्षके नीचे अपनी किरणोंसे मानो वृक्षको मूलसेही पल्लवित करती हो ऐसी, एक रत्नोंकी पीठ बनाई और उस पीठपर चैत्यवृक्षकी शाखाओंके अंतके पत्तोंसे बार बार साफ होता हो ऐसा,एक रत्नछंद बनाया। उसके वीचमें पूर्वकी तरफ विकसित कमलकोशके मध्यमें, कर्णिका (करनफूल) के जैसा, पादपीठ सहित एक रत्नसिंहासन बनाया और उसपर, मानो गंगाकी श्रावृत्ति किए हुए तीन प्रवाह हों ऐसे, तीन छत्र बनाए । इस तरह, मानो वह पहलेहीसे कहीं तैयार रखा हो और उसे वहाँसे उठाकर यहाँ लाकर रख दिया हो ऐसे, क्षणभरमें देव और असुगेने मिलकर वहाँ समवसरण की रचना की। (१०५-१२६)
जगतपतिने, भव्यजनोंके हृदयकी तरह मोक्षद्वार रूप उस समवसरणमें पूर्वद्वारसे प्रवेश किया। तत्काल जिसकी शाखाओंके प्रांतपल्लव (अंतिम पत्तें) उसके आभूपणरूप होते थे ऐसे, अशोक वृक्षकी उन्होंने प्रदक्षिणा दी। फिर प्रभु पूर्व दिशाकी तरफ आ, 'नमस्तीर्थाय' कह, राजहंस जैसे कमलपर बैठता है ऐसेही, सिंहासनपर विराजमान हुए। व्यंतर देवोंने तत्कालही, शेप तीन दिशाओंके सिंहासनोंपर भगवानके तीन रूप बनाए। फिर साधु,साध्वी और वैमानिकदेवोंकी स्त्रियोंने पूर्वद्वारसे प्रवेश कर भक्ति सहित जिनेश्वर और तीर्थको नमस्कार किया। प्रथम गढ़में, प्रथम धर्मरूपी उद्यानके वृक्षरूपी साधु पूर्व और दक्षिण दिशाके मध्यमें बैठे । उनकी पिछली तरफ वैमानिक देवताओंकी स्त्रियाँ खड़ी रही और उनके पीछे उसी तरह साध्वियोंका