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भरत-बाहुबलीका वृत्तांत
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[गुरुका विनय करना अच्छी बात है अगर गुरु गुरु हों; मगर गुरु यदिगुणहीन हों तो उनका विनय करना लज्जाजनक है। गुम अगर अभिमानी हो, कार्य-अकार्यका जाननेवाला न हो और उलटे रस्ते चलनेवाला हो तो ऐसे गुमका त्याग फरनाही उचित है । तुम कहते हो कि भरत सर्वसह-सब कुछ सहनेवाला राजा है, मगर हमने क्या उसके अवादि छीन लिए है या उसके नगरोंको लूट लिया है, कि हमारे इस अविनयको उन्होंने सह लिया। हम तो दुर्जनोंका प्रतिकार करनेके लिए (भी) ऐसे काम नहीं करते; ( इसलिए कहा है कि )"विमृश्यकारिणः संतः किं दुष्यंते खलोक्तिभिः ।"
[विचारपूर्वक काम करनेवाले सजन क्या दुष्ट लोगोके कहनेसे दूपित होते हैं ? ] इतने समयतक हम पाए नहीं थे। क्या वे कहीं निस्पृह होकर चले गए थे (सो लौटकर आए है) इसलिए अब हमें उनके पास जाना चाहिए। वे भूतकी तरह छिद्रको ढूँढ़नेवाले हैं तोभी हम सब जगह सावधान
और निर्लोभ रहनेवालोंकी कौनसी भूलको ग्रहण करेंगे ? (अर्थात हमारी भूलकी उपेक्षा करेंगे ?) हमने भरतेश्वरसे न कोई देश लिया है और न कोई दूसरी चीजही ली है तब वे हमारे स्वामी कैसे होंगे ? जब हमारे और उनके भगवान ऋपभदेवहीस्वामी है, तव हमारे और उनके सेवक और स्वामीका संबंध कैसे संभव है ? मैं तेजका कारणरूप हूँ। मेरे वहाँ आनेसे उनका तेज कैसे रहेगा ? कारण,
"तेजोऽम्युदितवत्य, तेजस्वी नहि पावकः ।" [तेजस्वी सूर्यके उदय होनेपर आगका तेज नहीं रहता है।