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३७. ] नियष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५.
आए कि मुर, अनुर और राजाओंकी लक्ष्मीले ऋद्विवान बने दुए के,हम अल्प वैभववालसिलजिजन होंगे। साठ हजार बरस. तक दूसरों के गल्य लेनमें लगे रहे। यह बातही उनके लिए अपने छोटे भाइयोंका राज्य लेनेकी व्यग्रताका कारण है। अगर भ्रातृस्नेहका कारण होता तो वे अपने भाइयोंको एक एक दृत भेजकर यह बात क्यों कहलात कि गञ्च छोड़ो अर्थात हमारी सेवा स्वीकार करो या लड़ाई करो। लोभी मगर बड़ा भाई। उसके साथ कौन लड़ाई करें ? यह सोचकरही मेरे सत्वर्वत सभी छोटे भाई अपने पिनाके पदचिन्हों पर चले हैं। उनके राज्योंको ले लनस छिद्र देखनेवाले तुम्हारे स्वामीकी बकचेष्टा श्रव प्रगट हो गई है। इसी तरह और एसाही स्नेह बताने के लिए, भरनने तुम्हें वागीक प्रपंचमें विशेष चतुर समझकर, बहाँ भेजा है। उन छोटे भाइयोंने अपना राज्य दे, व्रत ग्रहण कर, जैसा श्रानन्द उसको दिया है वैसा आनंद क्या मेरे पानसे उस राज्य लोभीको होगा ? नहीं होगा । मैं वनसे भी कठोर हूँ, और थोड़े बैंमवत्राला हूँ, तोभी बड़े भाईका अपमान होगा इस हरसे उनकी सम्पत्ति लेना नहीं चाहता है। फूलोंमें भी कामल हैं. मगर मायाचारी है। इसलिए निंदासे डरकर व्रत ग्रहण करनेवाले अपने छोटे भाइयोंके राज्य उनने ले लिग है. हे वृत ! भाइयों के राज्य ले लेनवाले भरतक्री हमने उपेक्षा की, इसलिए हम सचमुची निर्मयोंसे भी निर्भय है और.
"गुरौ प्रशस्यो बिनयो गुरुयदि गुरुमवेत । गुरी गुरुगुणहीन विनयोपि पास्पदम् ।।"