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४०८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य १. सर्ग ५.
है वैसेही, अपने धनुपोंके चिल्लोंको उतार दो; भंडारोंमें धन डाला जाता है वैसेही अपने बाणोंको भाथोंसे डाल दो और विजली, जैसे मेघमें समा जाती है वैसेही, तुम अपने क्रोधको रोक लो।" (५१६-५२७)
छड़ीदारकी बात वचकी थावाजके समान बाहुवलीके सैनिकोंने सुनीं । उनके मन भ्रमितसे होगए। वे आपसमें इस तरह बातें करने लगे, "ये देवता होनेवाले युद्धसे वनियोंकी तरह डर गए हैं।" "ऐसा जान पड़ता है कि इन्होंने भरतके सैनिकोंसे रिश्वत ली है।" "शायद ये हमारे पूर्वजन्मके बैरी है इसीलिए स्वामीसे प्रार्थना कर इन्होंने हमारा युद्धोत्सव रोक दिया है ।" "अरे ! भोजन करनेके लिए बैठे हुए आदमीके सामनेसे जैसे कोई परोसी हुई थाली उठाले, प्यार करनेको उद्यत मनुष्यकी गोदमेंसे जैसे कोई बालकको हटाले, कुँएमेसे निकलते हुए पुरुपके हाथमेंसे जैसे कोई, सहारेके लिए डाली हुई रस्सी खींच ले वैसेही श्राप हुए हमारे रणोत्सवको देवोंने बंद कर दिया।" "भरत राजाके जैसा दूसरा कौनसा शत्रु मिलेगा कि जिसके साथ युद्ध करके हम अपने वाहवली महाराजका ऋण चुका सकेंगे !" "दायादों यानी सगोत्री भाई-बंधुओं, चोरों और पिताके घर रहनेवाली पुत्रवती स्त्रीकी तरह हमने व्यर्थही बाहुबली महाराजसे धन लिया।" हमारी भुजाओंकी शक्ति ऐसेही व्यर्थ गई जैसे जंगल के वृक्षके फलोंकी सुगंध व्यर्थ जाती है।" "नपुंसक आदमीके द्वारा एकत्र की गई त्रियोंके यौवनकी तरह हमारा शस्त्रसंग्रह वेकार गया।" "शुक (तोते ) के किए हुए शाखाभ्यासकी तरह हमारा शख सीखना व्यर्थे हुआ.।" .