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६८ ]. त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४.
निर्मल गोशीर्षचंदनके रससे राजाका अंगराग करने लगींशरीरपर चंदनका लेप लगाने लगी। फिर राजाने अपने अंगके संगसे अलंकारोंको अलंकृत किया।
"प्रयांति धुत्तमस्थाने भूषणान्यपि भूष्यताम्"
[उत्तम स्थानको पाकर आभूपण भी अधिक सुशोभित होते हैं ।] (२८-३२)
फिर मंगलमुहूर्तमें, पुरोहितोंने जिसका मंगल किया है ऐसा, राजा खङ्गरत्न हाथमें ले दिग्यात्रा करनेके लिए गजरत्नपर सवार हुआ। सेनापति अश्वरत्नपर सवार हो हाथमें दंडरत्न ले राजाके आगे चला । सर्व उपद्रवरूप नीहारको' को नष्ट करनेमें दिनरत्न' के समान पुरोहितरत्न राजाके साथ चला । भोजन दानमें समर्थ और जगह जगह सेनाके लिए घरोंकी-डेरे तंबुओंकी व्यवस्था करनेवाला गृहीरत्न, मानो जंगम चित्ररस नामका कल्पवृक्ष हो ऐसे, सगर राजाके साथ चला। तत्कालही नगर
आदिकी रचना करने में समर्थ, पराक्रमी विश्वकर्माके जैसा वर्द्धकी रत्नभी राजाके साथ चला। चक्रवर्तीके कर-स्पर्शसे फैलने वाले छत्ररत्न और चर्मरत्न, अनुकूल,पवनके स्पर्शसे बादल चलत है ऐसे, साथ चले। अंधकारका नाश करनेमें समर्थ मणिरत्न और कांकिणीरत्न, जंबूद्वीपका लघुरूप धारण किए हुए दो सूर्य हों ऐसे, साथ चले। बहुत दासियाँ जिसके साथ है . ऐसा अंत:पुर (यानी सागरकी रानियां) स्त्रीराज्यसे आया हो . ऐसे, चक्रीकी छायाकी तरह उसके साथ चला। दिशाओंको
१--कोहरा । २-सूरज।