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श्री अजितनाथ चरित्र [६८ प्रकाशित करता था इससे दूरहीसे दिग्विजयका स्वीकार करता हुआ चक्ररत्न, चक्रवर्तीफे प्रतापकी तरह पूर्वकी तरफ मुख करके आगे चला। पुष्करावर्त मेघकी घटाके जैसे प्रयाण वाजित्रों के शब्दसे दिग्गजोंके कान खड़े करता, चक्रके साथ चलते हुए अश्वोंके खुरोंसे उड़ती हुईधूलिसे संपुट पुटकी तरह द्यावाभूमि को एक करता, रथों और हाथियोंपर फर्राती हुई ध्वजाओंके अग्रभागमें बनाए हुए पाठीन जातिके मगरादिसे मानो आकाशरूपी महासमुद्रको जलजंतुमय बनाता हो ऐसे दिखता; सात तरफसे.भरते हुए मदजलकी धारावृष्टिसे सुशोभित हाथियोंकी घटाके समूहसे दुर्दिन दिखाता, उत्साहसे उछलते होनेसे, मानो स्वर्गमें चढ़नेकी इच्छा रखते हों ऐसे करोड़ों प्यादोंसे पृथ्वीको चारों तरफसे ढकता, सेनापतिकी तरह आगे चलते, असा प्रतापवाले और सर्वत्र अकुंठित शक्तिवाले चक्ररत्नसे सुशोभित; सेनानीके धारण किए हुए दंडरत्न द्वारा, हलसे खेतकी जमीनकी तरह, विषम-ऊबड़ खाबड़ भूमिको एकसी बनाता और हर रोज एक एक योजनके चलनेसे भद्रद्वीपकी तरह लीलासे रस्तेको समाप्त करता, इंद्रके समान वह चक्री कई दिनोंके बाद पूर्व दिशामें आई हुई गंगानदीके ललाटपर तिलकके समान मगध देशमें पहुँचा । (३३-५०)
वहाँ सगर चक्रीकी आज्ञासे वर्द्धकी रत्नने, अयोध्याकी छोटी बहन हो ऐसी, छावनी बनाई। आकाश तक ऊँची और
१-दोनों हाथोंके पंजीको जोड़कर बनाए हुए संपुटकी तरह। २-श्रा काश और पृथ्वीको।