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६.} त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४.
बड़ी बड़ी अनेक इस्तिशालाओस, बड़ी बड़ी गुफाओं के समान हजारों अश्वशालाओस, विमानके समान हवेलियोंस, मेवकी घटाके समान मंडपोंस, मानों माँमें ढालकर बनाई गई हों ऐसी समान प्राकृनिवाली दुकानोंस और अंगाटक-चौराहे वगैरा की रचनासे राजमार्गकी स्थिनिको बनाती हुई वह छावनी शोभती थी। उसका विस्तार नौ योजन और उसकी लंबाई बारह योजन थी। (५१-५३)
वहाँ पोपयशाला गजान मगधतीर्थ कुमारदेवका मनमें ध्यान करकं अष्टम तप किया और सर्व वेषभूषा त्याग, दर्भकी चढाईका श्राश्रय ले, शत्ररहित हो, ब्रह्मचर्य पालते और जागते हुए उसने तीन दिन बिताए ! अष्टम तप पूर्ण हुआ तब राजाने पोषधगृहसे निकलकर पवित्र जलसे स्नान किया। फिर राना रथपर सवार हुश्रा । ग्थ पांडुवर्णकी ध्वजाआंसे ढका हुआ था। वह, अनेक तरहक हथियारोंसे ढका होनेके कारण फेन और जलजंतुीवाल समुद्रक जैसा जान पड़ता था। उसके चारों नरफ चार दिव्य घंटे लगे हुए थे, उनसे वह ऐसा शोभता था जैसे चार चंद्र और सूर्यासे मेरु पर्वत शोमता है । इंद्रके उचैःश्रवा नामक घोड़कि जैसे ऊँची गर्दनवांत घोई उसमें जुते हुए थे। (५४-६०)
चतुरंगिनी-हाथी, घोड़े, रथ और प्यादांकी-सेनास, वह चार प्रकारकी-साम, दाम, दंड और भेदवाली-नीतिके समान शोभता था। उसके सरपर एक छत्र था और दोनों तरफ दो चवर थे। ये तीनों उसकी तीनों लोकमें व्याप्त यशरूपी बलक तीन अंकरके समान मालूम होते थे। गनाका रथ पहियोंकी