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श्री अजितनाथ-चरित्र
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नाभि जितने गहरे जल तक समुद्र में पहुंचा। राजा हाथमें धनुष लिए रथमें बैठा था। जयलक्ष्मीरूपी नाटिकाके नाँदीके समान धनुषकी डोरी उसने बजाई और भंडारमेंसे जैसे रत्न निकालते हैं पैसेही उसने भाथेमेंसे तीर निकाला। फिर धातकीखंडके मध्यमें रहे हुए इष्वाकार पर्वतके जैसे उस बाणको धनुषके साथ जोड़ा। अपने नामसे अंकित और कानके आभूषणपन को प्राप्त उस सोनेके तीक्ष्ण बाणको राजाने कान तक खींचा और उसे मगधतीर्थके अधिपतिकी तरफ चलाया। वह आकाशमें उड़ते हुए गरुड़की तरह पंखोंसे सनसनाता निमिषमात्रमें बारह योजन समुद्र लाँधकर मगधतीर्थकुमारदेवकी सभामें पड़ा। श्राकाशसे गिरनेवाली बिजलीकी तरह, उस बाणको गिरते देख, वह देव गुस्सा हुआ ! उसकी भ्रकुटियाँ चढ़ गई। इससे वह भयंकर मालूम होने लगा। फिर थोड़ा विचार कर, खुद उठ उसने उस बाणको हाथमें लिया। उस पर उसे सगर चक्रवर्तीका नाम दिखाई दिया। हाथमें बाण लिए हुए वह अपने सिंहासनपर बैठा और गंभीर गिरासे वह सभामें इस तरह कहने लगा- (६१-७१) ___"जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें इस समय सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं। भूतकालके, भविष्यकालके और वर्तमान कालके मगधपतियोंका यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे चक्रवर्तियोंको भेट दें।” (७२-७३)
फिर भेटकी वस्तुएँ ले नौकरके समान आचरण करता हुआ वह मगधपति विनय सहित सगर चक्रीके सामने आया। उसने आकाशमें रहकर वक्रीका फेंका हुआ वाण, हार, बाजू