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चौथा भव-धनसेठ ..
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- तरह ऊँचे और तलुए समान थे, उसका मध्यभाग सिंहके मध्य
भागका तिरस्कार करनेवालोंमें अग्रणी था ( उसका छातीके नीचे और जंघाओंके ऊपरका भाग मोटा न था।) उसकी छाती पर्वतकी शिला (चट्टान) के समान थी। उसके दोनों ऊँचे कंधे बैलोंके कंधोंकी शोभाको धारण करने लगे। उसकी भुजाएँ शेषनागके फनोसी सुशोभित होने लगीं । उसका ललाट आधे उगेहुए (पूर्णिमाके) चंद्रमाकी लीलाको ग्रहण करने लगा। और उसकी स्थिर आकृति, मणियोसी दंत-पंक्ति (दौतोंकी कतार) से, नखोंसे और सोनेके समान कांतिवाले शरीरसे, मेरु पर्वतकी समग्र लक्ष्मीके साथ तुलना करने लगी।
(२३६-२४६) - एक दिन सुबुद्धि. पराक्रमी और तत्वज्ञ विद्याधरपति शंतबल राजा एकांतमें बैठकर सोचने लगा, "यह शरीर कुदरतीही अपवित्र है, इस अपवित्रताको नये नये ढंगों से सजाकर कवतक छिपाए रहूँगा ? अनेक तरहसे सदा सत्कार पाते हुए भी यदि एकाध बार सत्कारमें कसर हो जाती है तो दुष्ट पुरुषकी तरह यह शरीर विकृत हो जाता है। विष्टा (पाखाना) मूत्र (पेशाब ) और कफ जब शरीरसे बाहर निकलते हैं तब मनुष्य उनसे दुखी होता है-नफरत करता है; मगर अफसोस है कि येही चीजें जब शरीरमें होती हैं तो मनुष्यको कुछ ख्याल नहीं आता। जीर्ण वृत्तकी कोटरमें (पेड़के खोखले भागमें ) जैसे सर्प, बिच्छू वगैरा कर प्राणी पैदा होते है वैसेही शरीरमें पीड़ा पहुँचानेवाले अनेक रोग पैदा होते हैं। शरदऋतुके बादलोंकी तरह यह शरीर स्वभावसेही नाशवान है।