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२६४.] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग३.
कतक (निर्मली) के चूर्ण जैसी आपकी वाणीका जय-जयकार हो! हे करणाके क्षीरसागर ! जो आपके शासनरूपी महारथमें पाल्ढ़ होते हैं उनके लिए मोक्ष दूर नहीं रहता । हे देव ! हे निष्कारण जगतबं। हम साक्षात यापकं दर्शन कर सकते है, इसलिए इस संसारको हम मोनसे भी अधिक मानते हैं। हे स्वामी! इस दुनियामें भी हमें, निश्चल नेत्रों द्वारा आपके दर्शन के महानंदरूपी मरनेमें (स्नान करनेसे) मोचमुखके स्वादका अनुमत्र होता है। हे नाथ | रागद्वेष और कयायादि शत्रुओं द्वारा बाँबहुए इस संसारको श्राप, अमय-दान देनेवाले और बंधनसे छाडानेवाले हैं। हजगत्पते ! श्राप तत्व बनाते हैं, मार्ग बताते हैं और संसारकी रक्षा करते हैं, तब इसमें विशेष में आपसे क्या माँD ? लो अनेक तरह के उपवास और लड़ाइयोंसे एक दसरंके गाँवों और देशकोहीननवाने राजा है.वे सभी श्रापनमें मित्रमाव धारण कर आपकी समान बैठे है। श्रापकी पर्षदामें आया हुआ यह हाथी अपनी मूंडसे केमरी-सिंहके कर (पंजे) को खींचकर उससे बार बार अपने कुंम अलको नुजाता हैं। यह महिष मैंमा) दुसरं महिपकी तरह लेहमे बार बार अपनी जीम द्वारा इस हिनहिनातं घोड़को चाटता है। खेलसे - अपनी पूंछको हिलाता यह मृग, ऊँचे कान कर और सर मुका अपनी नाकसे इस बायका मुँह नवना है। यह तरुण मार्जार (दिल्ली) अाग-पीछ और पास-यासमें फिरते हुए चूहोंके बच्चोंको अपने बच्चों की तरह प्यार करती है। यह मुजंग (मॉप) कुंडलीकर, इन नकुलके पास मित्रकी तरह निर्भय बना बैठा है। हे देव ! ये दूसरे प्राणी मी-जोनदा आपसमें बैर रखनेवाले हैं