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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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करनेके लिए, इंद्रने चक्रीके पास बैठकर बड़े जोरसे रोना शुरू किया। इंद्रके साथ सब देवोंने भी रोना प्रारंभ किया। कारण,"समा हि समदुःखानी चेष्टा भवति देहिनाम् ।"
[समान दुःखवाले प्राणियोंकी चेष्टाएँ एकसीही होती हैं।] इन सबका रोना सुन, होशमें श्रा, चक्रीने भी मानो ब्रह्मांडको फोड़ डालते हों ऐसे ऊँचे स्वरसे रोना शुरू किया। बड़े प्रवाहके वेगसे जैसे पालीबंध (बाँधकी पाल), टूट जाता है वैसेही, उस रुदनसे महाराजाकी बड़ी शोकग्रंथी भी टूट गई। उस समय देवों, असुरों और मनुष्योंके रुदनसे ऐसा मालूम होता था कि तीनों लोकोंमें करुणारसका एकछत्र राज्य है। उस समयसे जगतमें प्राणियोंके शोकसे जन्मे हुए शल्य (शूल) को विशल्य करनेवाले ( शोककी शूलको निकालनेवाले-दुःख मिटानेवाले) रुदनका प्रचार हुआ । भरत राजा स्वाभाविक धैर्यका भी त्याग कर, दुःखी हो, तिथंचोंको भी रुलाते हुए इस तरह विलाप करने लगे,
__ हे तात ! हे जगवंथु ! हे कृपारससागर ! हम अज्ञानियोंको इस संसाररूपी अरण्यमें कैसे छोड़ दिया ? दीपकके बगैर जैसे अंधकारमें रहा नहीं जा सकता वैसेही, केवलज्ञानसे सग जगह प्रकाश करनेवाले आपके सिवा हम इस संसारमें कैसे रह सकेंगे ? हे परमेश्वर ! आपने छवास्थ प्राणीकी तरह मौन कैसे धारण किया है ? मौनको छोड़कर देशना दीजिए। अब देशना देकर क्यामनुष्योंपर कृपा नहीं करेंगे? हे भगवान! भाप मोक्ष जा रहे हैं, इसलिए नहीं बोलते हैं। मगर मुझे दुखी