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४८४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १: सर्ग६.
समय था; अभिचि नक्षत्र में चंद्रका योग आया था, उस समय पर्यकासनमें बैठे उन प्रभुने बादरकाययोगमें रह, बादरकाययोग और बादरवचनयोगको रोका। फिर सूक्ष्मकाययोगका आश्रय कर बादरकाययोग, सूक्ष्ममनोयोग तथा सूक्ष्मवचनयोगको रोका। अंतमें सूक्ष्मकाययोगको भी समाप्त कर सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यानके तीसरे पाएके अंतमें प्राप्त हुए । उसके बाद उच्छिन्नक्रिय नामक शुक्लध्यानके चौथे पाएका, जिसका काल पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण जितनाही है, आश्रय लिया। फिर केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सर्व दुःखोंसे रहित, आठ कोंको क्षीण कर सर्व अर्थको निष्ठित (सिद्ध) करनेवाले, अनंत वीर्य, अनंत सुख और अनंत ऋद्धिवाले प्रभु, बंधके अभावसे ऐरंड फलके बीजकी तरह, ऊर्ध्वगतिवाले होकर, स्वाभाविक सरल मार्गके द्वारा लोकाग्रको (मोक्षको) प्राप्त हुए। दस हजार श्रमणोंको भी, अनशन व्रत ले क्षपकश्रेणीमें चढ़नेपर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ; और मन, वचन और कायके योगोंको सब तरहसे रोककर, वे भी स्वामीकी तरह तत्कालही परमपदको पाए-मोक्ष गए । (४८२-४६२)
प्रभुके निर्वाण-कल्याणकके समय, सुखका लेश भी नहीं जाननेवाले, नारकियोंकी दुःखाग्नि भी क्षणभरके लिए शांत हुई। उस समय महाशोकसे आक्रांत चक्रवर्ती, वनसे पर्वतकी तरह, तत्कालही मूञ्छित होकर पृथ्वीपर गिरे । भगवानके विरहका महादुःख आ पड़ा; मगर उस समय दुःखको शिथिल करनेके कारणरूप रुदनको कोई जानता न था; इसलिए चक्रवर्तीने इस बातको बताने के लिए, तथा उसके हृदयका भार कम.