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श्री अजिमनाथ-घरिन
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उसके श्रानेकी खबर दी। द्वारपर आए हुए मनुष्यकी ग्यवर राजाको देना तो द्वारपालका कर्त्तव्यही है। राजाकी आज्ञासे, सत्कार संबंधी कार्यों के अधिकारी पुरुपके साथ, छड़ीदारने दरबारमें उसका प्रवेश कराया। वह राजाके सामने खड़ा हो, ऊँचा हाथ कर आशीर्वादात्मक आर्यवेदोंके मंत्र, पदक्रमसे थोला । मंत्र बोलनेके बाद वह छड़ीदारके बताए हुए आसनपर बैठा। राजाकी कृपापूर्ण आँखें उसको देखने लगीं। राजाने पूछा, "तुम कौन हो ? और क्यों आए हो ?" (२७१-२७६)
तब वह, ब्राह्मणोंका अग्रेसर वोला, "हे राजन् ! मैं नैमित्तिक (ज्योतिपी) हूँ; साक्षात ज्ञानके अवतार जैसे गुरुकी उपासना करके मैंने यह विद्या प्राप्त की है। आठ अधिकरणी ग्रंथ, फलादेशके ग्रंथ, जातक तथा गणितके ग्रंथ अपने नामकी तरह मुझे याद है । हे राजा ! मैं तपःसिद्ध मुनिको तरह भूत, भविष्य और वर्तमानकी बातें ठीक ठीक बता सकता हूँ।" है तब राजाने कहा, "हे प्रिय ! वर्तमान समयमें तत्कालही जी नवीन वात होनेवाली हो वह बताओ। कारण,-दूसरेको तुरंत अपने ज्ञानका विश्वास करा देनाही ज्ञानका फल है।"
(२७६-२८०) तब ब्राह्मणने कहा, "आजसे सातवें दिन समुद्र सारे संसारको जलमय बनाकर प्रलय कर देगा।" (२८१)
यह सुनकर राजाके मनमें विस्मय और क्षोभ एक साथ उत्पन्न हुए; इसलिए उसने दूसरे ज्योतिपियोंकी तरफ देखा। राजाकी भ्रकुटिके संकेतसे पूछे गए और ब्राह्मणकी उस दुर्घट (असंभव ) वातसे क्रुद्ध बने हुए वे ज्योतिपी उपहासके साथ